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Showing posts from June, 2023

रथयात्रा का सांसारिक सरोकार

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  भगवान जगन्नाथ रथयात्रा पर विशेष रथयात्रा का सांसारिक सरोकार         @मनोज जन्म से अंत तक मानव जीवन यात्रामय है। मानव शरीर में परमात्मा की उपस्थिति सूक्ष्म रूप में हैं, उसे ले चलने की दिशा पारिवारिक  तथा सामाजिक परिवेश के साथ स्वविवेक से निर्धारित करना पड़ता है।  मनुष्य देह एवं चेतना शक्ति के मिलने से रथ रूपी शरीर की यात्रा अग्रसर होती है, इसमें गति के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, ज्ञानेन्द्रियों की लगाम मन से जुड़ी रहती है, मन की नियंत्रक हमारी बुद्धि है, मन और बुद्धि के ऊपर विवेक ध्वज-सम है; इस स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के समन्वय से जीवन यात्रा संचालित होती है। स्थूल शरीर जड़ है उसे सूक्ष्म शक्ति संचालित करती है, यानी सूक्ष्म शक्ति सारथी की भूमिका में है;  इसी सूक्ष्म शक्ति को तेजस्वी बनाने के लिए मन को साधना अत्यंत आवश्यक है।  मन ही अश्व है इसे विवेक रूपी लगाम से  नियंत्रित रखा जाए, तो जीवन यात्रा की दिशा  सकारात्मक होती है, तभी जीवन यात्रा गंतव्य तक पहुँच पाती है।   ~मनोज श्रीवास्तव

योग

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  अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष योग माहात्म्य         @मानव चितवृत्ति का ईश्वर में विलीन हो जाना  योग है; भगवान की अहैतुकी कृपा से जो महायोग बनता है। न बुद्धि की सत्ता हो ना मन की चंचलता चित्त में संस्कार शेष न रहे  यही स्थिति योगी की है, जो ईश्वर से एकाकार होकर प्रेम रस से भर जाता है,  वाणी अवरुद्ध हो जाती है,  मन रिक्त हो जाता है ।  भक्त का योग जब भगवान से होता है  मन, बुद्धि और चित्त के साथ साधन अहम् शून्य हो जाता है, मन,बुद्धि, चित्त और अहम् की स्वीकृति केवल साधन काल में होती है पर साध्य की परम प्राप्ति में इनकी विस्मृति ही योग है।  संयम की प्रामाणिकता भी  योग से ही सिद्ध होती है, ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों की अर्जित शक्ति का एकत्रीकरण योग द्वारा किया जाता है  योग चाहे ध्यान-रूप में हो  या व्यायाम-प्राणायाम रूप में  उसकी शक्ति को एकत्र करके उसका उपयोग ही वास्तविक योग है। जब तक योग जीवन में  आत्मसंयम न आ जाए तब तक क्रियात्मक योग  मात्र शरीर संवर्धन होगा। वह योग कुयोग है वह ज्ञान अज्ञान है जिसमें भगवान के प्रति  प्रेम और समर्पण की  प्रधानता न हो, यदि शरीर का योग भगवान से जुड़

पिता

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  पितृ दिवस पर विशेष पिता         @मानव पिता है बरगद की शीतल छाँव  जो सदा है गंभीर मन से छुपे लाखों भाव  आँख नीर विहीन । अबूझ दुनियावी संघर्ष में   सदा थामे हाथ, ईश्वर की प्रतिमा  व बच्चों की पहचान बन हार कर हर सुख, जो सदा मुस्कराया है; बच्चों का हर दुःख जो स्वयं सहता आया है; पिता की स्मित मुस्कान ने हमें दुनिया से अभय दिलाया; शतरंज की यह विजय  दूसरा समझ न पाया। पिता बिना  सफर एकाकी, राह सुनसान,  जिंदगी वीरान, अधूरा संसार, हर तोहफा लगे बदरंग; एक दिन मात्र याद करने से क्या हो पाएगा उनका समुचित सम्मान?  ~ मनोज श्रीवास्तव

कबीर-दृष्टि

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  कबीर जयन्ती पर विशेष , कबीर-दृष्टि        @मानव प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक  दृष्टिवादी संत कबीर अतिवाद विरोधी हैं। अध्यात्म जगत  स्पष्ट करता है  कि मनुष्य लोकेषणा,  वित्तेषणा, और पुत्रेषणा के चलते आनन्द से दूर होता है, जो ब्रह्मानन्द का अंश है, कबीर उसी ब्रह्मानन्द को पहाड़ मानकर पूजने की बात करते हैं; कबीर का "साँई" अंतर्जगत का मालिक है; जबकि उनकी "चाकी"  अंतर्जगत की चक्की है, मन और मस्तिष्क की चक्की से जहाँ विवेक का पदार्थ निकलता है। संत कबीर की उल्टबाँसी  मानव के गर्भ में आने से लेकर मृत्यु तक के प्राकृतिक स्वरूप को प्रदर्शित करती है। प्रकृति में व्याप्त ऊर्जा को जब मनुष्य ग्रहण करने लगता है, तब संवेदना, मानवीय मूल्यों एवं दैवीय गुणों की बरसात उस पर होने लगती है। सन्त कबीर के दोहों में वर्तमान इंटरनेट युग के  चिप जैसी समाहित विशाल क्षमता है जिसमें मानव जीवन को  सार्थक बनाने का भाव  समाहित है।   ~ मनोज श्रीवास्तव