कहानी:एक कुत्ते की आपबीती

 एक कुत्ते की आपबीती


मनोज श्रीवास्तव

अजी छोड़िए! मुझसे ज्यादा कौन जानेगा अपने पराए का भेद!
         आज सुबह ही में वीआईपी कॉलोनी में ब्रेकफास्ट के लिए इधर-उधर घूम रहा था।सोचा था बड़े आदमियों की बस्ती में कुछ लजीज जूठन मिल जाएगी।अभी दो चार बंगले के आगे लगे कूड़े के ढेर को सूँघा ही था कि एक बंगले के गेट से लगा सफेद अल्सेशियन अंदर से भुक-भुक करने लगा।मैं उसे ध्यान दिए बिना बंगले के आगे सड़क उस पार लगे ढेर का निरीक्षण करने लगा।ढेर के चारों ओर घूमने के बाद जब मुझे कुछ ना मिला तो मैं खिसिया गया।सामने उस नाक पीटे को भुक-भुक करते देख मेरी खिसियाहट और बढ़ गई। मैंने भी अपने होंठ ऊपर कर दाँतों को दिखलाते हुए हल्की गुर्राहट के साथ उसे घुड़क दिया।वह एक बार पूँछ दबा बैठा।पर अंदर लान में मार्निंग -वॉक से लौटी बंगले की जींस टॉप वाली नकचढ़ी मालकिन- कन्या ने यह देख लिया।संभवत: उसे मेरी गुस्ताखी तौहिनी लगी।अंदर की ओर मुँह करके चीखने लगी-"टॉमी टॉमी---"। जाने कहाँ से एक दूसरा अल्सेशियन आ पहुंचा और छोकरी ने दौड़ते हुए गेट खोल दिया।वह चिल्लाई,"टॉमी- टॉमी गो एंड अटैक--।"मैं सिटपिटा गया।मैं कुछ समझता उससे पहले वह दोनों एक साथ कूदते हुए गेट व सड़क पार कर मुझ पर पिल पड़े।मालकिन की शह, एक दूसरे का साथ और बड़े घर के पालतू होने के दंभ ने उन्हें शेर बना दिया था।उन्होंने मुझे नोचते हुए गिरा दिया।थोड़ी देर तो मैं असहाय बना रहा केवल इसलिए कि यह मेरी नजर में उनकी नादानी भर थी।पर उन्हें हुज्जत बढ़ाते देख मुझे क्रोध आ गया।हराम की खा कर उनकी यह हिम्मत!नीचे चित्त पड़े-पड़े अभी तक उनका वार रोकता मैं,वहीं से वार करने लगा।एक मिनट भी न बीते होंगे कि मैंने उन्हें पस्त कर दिया।एक को तो गले के पास मेरा दाँत भी लग गया।उसके खून निकल आया।वह बंगले की ओर भागा।
अभी तक कमर पर हाथ धरे मुझे गिरा नुचता देख रही नकचढ़ी ने जब अपने दुलारे के दूधिया बालों पर खून बहता देखा तो उसका पारा सातवें आसमान तक चढ़ गया।वह चीखी-"रामू रामू कम हियर...।"अंदर से एक मुस्टंड छोकरा तेजी निकला।बोला- "क्या बात है छोटी मालकिन!"
"स्टिक ले आ ! मार इस आवारा ब्लडी को।इसने टॉमी को नोच डाला।"लड़का मुड़ ही रहा था कि वह पीछे से चीखी-"गन ले आ!मैं इसे शूट कर दूँगी!"

        मैं तो सनाका खा गया। मैं अभी भी इकलौते अल्सेशियन से जूझ रहा था और वह अमीरजादी ना जाने क्या-क्या बड़बड़ाती जा रही थी।मेरे दिमाग में तो यही उथलपुथल थी कि कैसे मैं छुड़ाकर इस जंजाल से भागूँ इसलिए मुझे उसकी बड़बड़ाहट समझ में नहीं आ रही थी।आखिर मैं यह जानता था कि जुर्म अगर अमीर करें तो वह अनजाने में किया गया अपराध है फलतःवह माफी का हकदार है और गरीब का जुर्म सदा संगीन ही होता है।
         पर शायद मेरी जिंदगी शेष थी तभी छोकरा गन लेने नहीं गया।वह लॉन में ही रखा डंडा लेकर दौड़ता हुआ बाहर आ गया।उसे सड़क पार करता देख मेरी तो जान ही सूख गई। मैंने किसी तरह अल्सेशियन को जोर का धक्का दिया।वह छिटक कर दूर जा गिरा।पर तब तक एक डंडा मेरे सिर पर पड़ा।मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा गया।जमीन पर चित्त पड़े-पड़े मेरे पेट व पीठ पर तीन चार वारऔर पड़ गए। पता नहीं किस शक्ति ने मुझे सहारा दिया,मैं किसी तरह उठा और दुम दबाकर जान बचाने के लिए भाग खड़ा हुआ।भागते हुए भी लड़के ने डंडा फेंक कर मारा। मेरी पिछली टाँगें मानो टूट गईं। फिर भी मैं रुकने वाला न था। मेरी धुनाई से दोनों ही हरामियों में भी जान आ गई थी वे भी मेरे पीछे भाग रहे थे। मेरा पों-पों चिल्लाना सुनकर अमीरजादी ठठा कर हँस रही थी।पर मुझे तो पीछे देखना ही न था।पता नहीं किन किन गलियों को मैं पार करता रहा। लगभग आधे घंटे तक मैं भागता रहा।अंततः मैं अपने मुहल्ले में था।
झुग्गी-झोपड़ियों वाले इस मोहल्ले को देखते ही मेरी जान में जान आ गई।मैंने भगवान को मुसीबत टालने के लिए धन्यवाद दिया।पर खाली पेट इतनी दौड़ लगाने व चार- छह डंडे खाने के बाद तो मेरी नस-नस ढीली पड़ चुकी थी। मैं हाँफ रहा था।रामदीन की झोपड़ी के ओसारे के परिचित कोने में मैं जा बैठा ।अपने आगे के दोनों पैर सामने की ओर फैला उन पर अपना मुँह रखकर मैंने अपनी आंखें मूँद लीं।अपनी चिर परिचित सुरक्षित जगह पर पहुंचकर मुझे बेहद सुकून मिल रहा था। मुझे झपकी भी आ गई।अभी कुछेक मिनट बीते थे कि अंदर के दरवाजे से रामदीन के दोनों लड़के जो बमुश्किल पाँच-सात बरस के अंदर ही हैं हाथ में तख्ती और अपना गंदा पैबंद लगा बस्ता लिए निकल पड़े।वे अपना पाठ याद करने ओसारे में आ रहे थे।यह उनका रोज का नियम था।नीचे सरकी जाती नेकर, कुल मिला एक-दो साबुत बटन में टँगी शर्ट और बहती नाक में ये बच्चे मुझे बेहद प्यार करते हैं। जब मैं ओसारे में पड़ा रहता हूं तो मेरे ऊपर लोट-लोट जाते हैं। खड़े होने पर पीठ पर चढ़कर सवारी करने की कोशिश करते हैं और गिरने पर एक दूसरे पर ठहाका मारकर हंसते हैं। मैं बिना किसी उज्र के देखता रहता हूँ। जब ये दोनों द्वार पर दौड़ते हुए छुआ छुऔव्वल खेलते हैं तो मैं भी उन की भाग दौड़ में शामिल हो आनंद उठाता हूँ। गेंद खेलते समय जब भी वह तेजी से दूर चली जाती है तो मैं ही उठा कर लाता हूँ।ये लड़के मेरे साथ केवल खेलते ही नहीं बल्कि खाना खाते समय उसमें से कुछ ना कुछ बचा कर मेरे लिए रख लेते हैं। छोटा गनेशी तो कभी-कभी अपना खाना उठाकर ओसारे में चला आता है और मेरे पास बैठकर ही खाता है ।कुछ मुझे अपने हाथ से खिलाता है और कुछ खुद खाता रहता है।उसे मुझे अपने साथ खिलाने में बेहद संतोष मिलता है।इन छोरों की माँ रोज रात में मेरे लिए कौरा निकाल कर रखती है।घर का चौका-बासन करने के बाद वह बाहर निकलकर एक तेज आवाज देती है-"कल्लू!ले तू...!"और मैं जहाँ कहीं भी होता हूँ भागा चला आता हूँ।वास्तव में मैं उस समय उसी आवाज की प्रतीक्षा में वहीं आस पास मंडराया करता हूँ।
आज घर से निकलते ही जब इन छोकरों ने मुझे देखा तो गनेशी बोल पड़ा-"अरे कल्लू तू सबेरे-सबेरे कहां चला गया था। बासी के टैम मैं तुझे ढूंढ रहा था” यह कहते बस्ता जमीन पर फेंकते वह मेरे पास आ पहुंचा और जमीन पर बैठकर मेरे मुंह को सहलाने लगा। थका होने व पीड़ा के कारण मैं गर्मजोशी ना दिखा सका। हल्की सी "कूँ..." की आवाज कर वैसे का वैसे पड़ा रहा बस अपनी आँखें खोल भर दीं। गणेशी फिर बोला-" क्या बात है क्या तू मुझसे नाराज है।"तब तक उसका हाथ मेरी गर्दन से होता धँसे पेट तक पहुंच चुका था।'अच्छा आज तू अभी तक भूखा है।अरे बासी के टैम तो मैं तुझे ढूंढ रहा था।मैंने तुझे द्वार पर आवाज भी दी थी पर तेरा तो पता ही ना चला।मुझे तो अकेले खाना अच्छा न लगा।मुँह जूठा कर उठ गया।माँ ने पूँछा तो भी बिना कुछ कहे चला आया।अभी तो मेरा खाना रखा है मैं उसे अभी लाता हूँ।"वह मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना उठकर दौड़ता हुआ अंदर चला गया। मेरी नजर द्वार पर ही टिक गई। जल्दी ही वह निकला| उसके हाथ में जस्ते (ऐलुमिनियम) की थाली थी जिसमें दो बासी रोटी और कोई सब्जी थी।वह मेरे पास बैठ गया।नाक में खाने की गन्ध जाते ही मैं भी सजग हो गया।गनेशी ने रोटी का टुकड़ा तोड़ा और उसे मेरे मुँह के पास ले आया। मैं "ना" नहीं कर सका,तत्काल मुँह बढ़ाकर उसे ले लिया। गनेशी मेरी आतुरता देख हँसा।उसने दूसरा कौर तैयार कर उसे अपने मुँह में रख लिया। मेरी आंखें छलछला आईं।मैं स्वयं को कोस रहा था-ना जाने किस घड़ी में लजीज़ खाने की लालच में यह प्रेम-रस-पगा भोजन छोड़ गया था और बदले में मिला था चार-पांच डण्डों का भरपूर वार!मैं सोच रहा था-मुझे सीख देने के लिए यह पाठ पर्याप्त था।आखिर अपने-अपने ही होते हैं।वे कितने ही गरीब हो दिल के अमीर होते हैं।

मनोज श्रीवास्तव

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