कहानी : काउण्टर-१

                   काउण्टर-१


आज काउण्टर पर बड़ी भीड़ है।कैशियर की उँगलियाँ कंप्यूटर के की-बोर्ड पर व ग्राहक से मिलने वाली नकदी की गणना में तेजी से व्यस्त हैं; पर भीड़ है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही।एक ७०-७५ वय के बुजुर्ग छड़ी टेककर लाइन में लग गये। लगभग पन्द्रह मिनट तक लाइन में लगे होंगे कि पीछे भी कतार में १५-२० नए लोग लग चुके थे।इस दौरान जितने लोग आगे से हटे होंगे उससे यह अनुमान लगाया जा सकता था कि लाइन के इस बिंदु को सरकते हुए काउंटर पर पहुंचने में एक घंटे से अधिक का समय लगना तय है। बुजुर्गवार निराश थे पर मजबूर भी। बीस किलोमीटर से आना जो हुआ था।


इतने में एक नवयुवक देवदूत(?) बनकर आया। "दादा इस तरह आप कब तक लाइन में लगे रहेंगे? लाइए आप की जगह मैं खड़ा हो जाता हूँ।आपका पैसा और अपना पैसा साथ में जमा कर दूँगा। आप यहीं बेंच पर बैठ जाएं।

दादा को सौदा बुरा नहीं लगा।लड़के को १५-२० लोगों के पहले ही खड़े होने का स्थान मिल जाएगा; इससे उसके भी आधे घंटे से ज्यादा समय की बचत होगी और उनका भी काम निकल जाएगा।उन्होंने अपने हाथ की संपूर्ण राशि व पॉलिसी खाता नम्बर की चिट(चालान) सहर्ष युवक को थमा दी और खुद पीछे ग्राहक बेंच पर जा बैठे व युवक पर नजर रखने लगे।


युवक तन्मयता से पंक्ति में खड़ा होकर बारी का इंतजार करने लगा।उसने दो-तीन बार स्वयं पर नजर रख रहे बुजुर्ग को मुड़ कर देखा और मुस्कुरा भर दिया।बुजुर्ग ने उसे अपने प्रति कृतज्ञता ज्ञापन समझते हुए मुस्कराकर प्रत्युत्तर दिया।वह मन ही मन इस बिगड़ते जा रहे समाज में एक भले मानुष(!) को पाकर भगवान को भी धन्यवाद देते रहे। अभी कुछ देर पहले जब उन्होंने लाइन से आगे जाकर काउण्टर पर पैसा देने का प्रयास किया था तो पीछे से कितने ही लोग चिल्ला पड़े थे।पर यह युवक...


धीरे-धीरे आश्वस्त बुजुर्ग का ध्यान युवक से हटकर आस-पास की अन्य गतिविधियों की ओर भी उन्मुख हो चला।कैसे लोग लाइन में झगड़ रहे हैं;कैसे कुछ बिना लाइन पैसा जमा करने का जुगाड़ कर रहे हैं; कुछ अपने हाथ का पैसा मुट्ठी में भींचे ऐसे इंतजार कर रहे हैं मानो वे भगवान के दर्शन की प्रतीक्षा कर रहे हों।


वृद्ध ने पुनः अपना ध्यान अपने लक्ष्य की ओर घुमाया। यह क्या!युवक तो अपने स्थान पर है ही नहीं! नहीं! इस बीच लाइन आगे बढ़ गई होगी और वह आगे सरक गया होगा।उन्होंने अपने मन को समझाया और कुछ देर तक अपनी जगह पर बैठे रह गए।पर मन ना माना तो अपने स्थान से उठे और उसे अपनी लाइन में तलाशने लगे। वह लाइन के बगल खड़े हुए तो पुनः पीछे खड़े लोग चिल्ला पड़े मानो वह बीच लाइन में घुसने का प्रयास कर कर रहे हों। पर इन सब को नजरअंदाज कर उनकी नजरें युवक को तलाश रही थीं। वृद्ध के स्थान के आगे पीछे लगे रहे लोग लाइन से बाहर आ चुके थे।आधे घण्टे भर का समय और बीत गया पर युवक नहीं निकला।उनके चेहरे की रंगत बदल चुकी थी।वे उस "देवदूत" शब्द का विश्लेषण कर रहे थे।आँखें नम थीं क्योंकि उनकी गाढ़े की कमाई...


आसपास खड़े लोग बूढ़े के सफेद चेहरे को देख केवल संवेदना व्यक्त कर सकते थे।घटना को सुनकर होने वाली बेटे व बहू की प्रतिक्रिया की कल्पना भी उनका पीछा नहीं छोड़ रही थी।


मनोज श्रीवास्तव

(वर्ष २००५ में मेरे सम्मुख घटी एक घटना)

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