कहानी : काउण्टर -दो

               कहानी : काउण्टर -दो


आज भी काउण्टर पर बड़ी भीड़ है।बारह साल का एक बच्चा जिसके पिता ने उसे दुनियावी ज्ञान सीखने भेजा था लाइन में सबसे पीछे लग गया।१५-२० मिनट में लाइन हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ती गई और बच्चा बीच में था। पँक्ति के आगे बढ़ने की गति उसे अब से एक घंटे तक का समय लगने का स्पष्ट संकेत दे रही थी। 


एक सज्जन जो अभी-अभी आए थे लड़के के बगल आकर बोले-"बेटा तुम कहाँ लाइन में लगे हो?"

  "अंकल पापा का पैसा जमा करना है।"

"एक ही खाता (पालिसी) है?"

 "हाँ!"

"तो जाओ तुम बेंच पर बैठ जाओ।मैं अपने पैसे के साथ तुम्हारा भी जमा कर दूँगा।"


बच्चे की बुद्धि ने तुलसी के कथन-'जाकी रही भावना जैसी" के अनुसार उस व्यक्ति का निवेदन दोष रहित माना और सहर्षअपना पैसा व चालान (चिट पर्ची) सौंपकर लाइन के पीछे रखी बेंच पर बैठ गया।


पाँच मिनट बीते होंगे कि व्यक्ति ने अपने पर दृष्टि रखे बच्चे को इशारे से पास बुलाया।बच्चे को एक छोटी पर्ची व पाँच रुपये का नोट पकड़ाते हुए बोले-"बेटा नीचे मेडिकल स्टोर से यह एक गोली लेते आना सर में बड़ा दर्द है।"बच्चे ने कृतज्ञता ज्ञापन का अवसर मानते हुए पर्ची ली और सहर्ष नीचे उतर गया।


नीचे से ऊपर आते ही उसने अपनी पंक्ति का शुरू से अंत तक निरीक्षण कर डाला पर वह सज्जन....!


हाथ में ली गई टेबलेट कॉंप रही थी और वह बुलक्का काढ़ कर रो पड़ा।उसे असली दुनियावी ज्ञान हो चुका था। पर घर पर पिता का भय.... अब वह दहाड़े मारने लगा।आसपास के लोगों ने मामले को समझा।


काउण्टर के पीछे बैठा मैं..., सूचना मिली।बच्चे को पास बुलाकर बैठाया। शांत करने का प्रयास किया।पर पिता का भय हावी था।


पिता के बारे में पूँछा, पता चला दीवानी अदालत पेशे से औसत दर्जे के वकील हैं। मोबाइल नंबर लिया।उन्हें तुरंत कार्यालय आने का आग्रह किया।वे दौड़े आए। मेरे पास अपने बिलखते बच्चे को पाकर सकपकाए पर बात पता चलने पर अपने को धीरज देते हुए बोले-"चलिए बेटे को दुनिया का ज्ञान तो हो गया;थोड़ा कीमत देकर ही सही।"मैंने बेटे के निर्दोष होने के कारण उसे दण्ड ना देने का बारंबार आग्रह किया।उन्होंने मुझे आश्वस्त भी किया और बेटे को साथ लेकर चले गए।पर वह सज्जन (?).......!


मनोज श्रीवास्तव

(वर्ष २००६ में मेरे सम्मुख घटी एक घटना)

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