ऐतिहासिक बाल कथा : वह बालक

        ऐतिहासिक बाल कथा : वह बालक

लगभग चार शताब्दी ईसा पूर्व का वह काल।मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र की राजसभा। बड़े-बड़े विद्वान,कुशल योद्धा,चतुर राजनीतिज्ञ, प्रतिभा संपन्न कलाकार व लक्ष्मी के वरद पुत्र धनिकों से सुशोभित सभा में लोग यथास्थान बैठे थे।अमात्य राक्षस व उपमहामात्य शककटार भी अपने स्थान पर विराजमान थे।चारों ओर शस्त्रधारी सैनिक सचेत खड़े थे।तभी द्वार पर शोर हुआ। सभी सचेत हो उठ खड़े हुए।नंदवंशी महापद्मनन्द राजा उग्रसेन ने प्रवेश किया।वे मंथर गति से सिंहासन की ओर बढ़ रहे थे;मानो कोई मदमस्त हाथी अपनी ही धुन में बढ़ा चला जा रहा हो।साथ में चल रहे दीर्घकाय अंगरक्षक उनकी शोभा में चार चाँद लगा रहे थे।उनके सिंहासन ग्रहण करते ही राजसभा में चुप्पी छा गई। महामात्य राक्षस ने उठकर सादर महाराज की जय जयकार की और सभा की कार्यवाही प्रारंभ करने की अनुमति माँगी।


अनुमति मिलते ही महामात्य ने इशारा किया।एक व्यक्ति आगे बढ़ा।उसने सम्मान पूर्वक राजा को अभिवादन किया।संभवतः वह एक विदेशी दूत था। उसके इशारे की अनुमति से पीछे खड़े दसियों अनुचर आगे बढ़े।उनमें कुछ के हाथों में बड़े-बड़े थाल थे जिनमें हीरे मोती व अन्य बहुमूल्य पत्थर थे।कुछ के हाथों में कुछ और बहुमूल्य पदार्थ व विदेशी मदिरा थी। सभी ने यह सामग्री राजा के सम्मुख रखकर शीश झुकाए, और पीछे हट गए।विदेशी ने अपना परिचय देते हुए कहा-" महाराज!मैं रोम शासक का दूत आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। कृपया यह तुच्छ उपहार स्वीकार करें।" महाराज ने उपहार को स्वीकृति दी।दूत ने आगे कहा-" महाराज हमारे दरबारियों ने एक विचित्र सिंह को लोहे के पिंजरे में बंदी बनाया है जिसे हमारे स्वामी ने आपके पास भेजा है।उन्होंने विनम्र निवेदन किया है कि हमने इस सिंह को बंदी तो बना लिया है पर विचित्र बंधनों के कारण यह पिंजड़ा ना तो खोला जा सकता है और न काटा जा सकता है।इन बंधनों की रक्षा करते हुए इस सिंह को बंधन मुक्त करना अब मगध सम्राट के शौर्य से ही संभव है। महाराज उस पर अनुकम्पा करें।" उसकी दृष्टि दरबार के कोने में रखे एक लौह पिंजरे की ओर उठ गई जिसमें एक सिंह मूर्ति विराज रही थी।देखने से लगता था कि दरबार अभी दहाड़ से गूँजने वाला है।


महाराज मुस्कराए उन्होंने अपने आमात्यों सहित समस्त सभासदों पर दृष्टि डाली।उनका तात्पर्य स्पष्ट था।महामात्य राक्षस व आर्य शककटार समेत अन्य अमात्य उठकर उस पिजड़े तक गए।उन्होंने सूक्ष्म दृष्टि से उस पिंजड़े का अवलोकन किया।थोड़ी ही देर में महामात्य की घोषणा दरबार में गूँजी - "सभा के विद्वत जनों!आप मगध के मित्र रोम के महाराज की इच्छा की तुष्टि करें।"


कुछ सभासद उठे।उन्होंने पिंजड़े का अवलोकन किया, फिर वह आपस में विमर्श करते हुए अपने आसन पर जा बैठे।एक-एक कर लगभग सभी सभासद पिंजड़े का दर्शन कर वापस जा चुके थे।उनमें फुसफुसाहट चल रही थी पर कोई सामने नहीं आया।


"सिंह को कौन मुक्त कर रहा है?" व्यग्र सम्राट की आवाज गूँजी।सभा में कुछ देर हलचल रही।हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को देखकर उत्तर चाह रहा था।पर कुछ ही देर में सन्नाटा छा गया।सब लज्जित थे व ऑंखें झुकी हुई थी।वे अब केवल कनखियों से ही एक दूसरे को देखते पर दूसरे की नजरों का सामना होते ही अपनी आँखें चुरा लेते। महाराज की ओर नजर उठाने का तो उनमें साहस ही ना रह गया था।


"महामात्य!"मगधराज गरजे।"मगध की बुद्धि क्या मंद पड़ गई है?घनानंद के दरबार में क्या एक भी...."


"सम्राट की जय हो!"


सम्राट सहित सभी की दृष्टि उस ओर उठ चुकी थी जिस कोने से यह आवाज आई थी।दर्शकों के बीच में खड़ा एक हृष्ट-पुष्ट पन्द्रह वर्षीय किशोर अब तक सबसे आगे आ चुका था।"मुझे आज्ञा दें सम्राट!"उसने निवेदन किया।


सम्राट जो पहले ही क्रोधित थे,एक किशोर की धृष्टता देखते ही फुफकार उठे- "आज्ञा है!पर याद रख!यदि तू असफल हुआ तो तेरे रक्त से ही इस सिंह को स्नान कराया जाएगा।"


बालक बिना कोई प्रतिक्रिया व्यक्त किए बेहिचक पिंजरे की ओर बढ़ चला।उसने पिंजरे की एक परिक्रमा की।दो क्षण ठिठका फिर राज पुरुषों को आज्ञा दी- "पिंजड़े को पानी में डुबो दिया जाए।"अविलंब पानी के विशाल पात्र को दरबार में लाया गया और उसे अनुचरों ने पानी से लबालब भर दिया।दीर्घ काया वाले सेवकों ने ताकत लगाकर पिंजड़े को उठाया और पानी में डाल दिया। पूरे दरबार में सन्नाटा था।मानों सबकी सांसें रुक गई थीं।दूत अपने स्थान पर खड़ा सव्यंग मुस्कुरा रहा था।


किशोर ने अनुचरों को पिंजड़ा बाहर निकालने की आज्ञा दी और स्वयं जाकर पुनः पिंजड़े का निरीक्षण करने लगा।महामात्य राक्षस व आर्य शकटार पसीने से नहा गए थे।वे साश्चर्य बालक के दुस्साहस को देख रहे थे।उनके आगे तो अब बालक के शोणित से नहाया सिंह घूम रहा था।वे मन ही मन महाराज की कठोर शर्त पर क्षोभ प्रकट कर रहे थे और उस किशोर को एक दया पात्र समझ रहे थे।पर वे कर ही क्या सकते थे। तभी बालक की आँखों में चमक उभरी। उसने व्यग्रता के साथ कहा-"अग्नि प्रज्ज्वलित करने का प्रबंध हो।"अब तक उत्तेजित महामात्य आर्य राक्षस भी उसके निकट पहुंच चुके थे। उन्होंने अनुचरों को तत्काल आज्ञा दी।एक शिला पर अग्नि प्रज्ज्वलित की गई। किशोर के निर्देशानुसार पिंजड़ा अग्नि पर रखा गया।कुछ देर तक आग पिंजड़े को तपाती रही।तभी वह उछल पड़ा।अग्नि की लपक के बीच सिंह के मुख से कुछ चाँदी सी लुढ़की।वह दाएं हाथ के मुक्के को उत्तेजना में बाएं हाथ पर पटकता हुआ राक्षस की ओर मुड़ा-"देखिए आर्य! सिंह मुक्त हो रहा है!" महामात्य भी समझ चुके थे। लोहे के पिंजरे में शीशे का बना सिंह पिघल रहा था।देखते ही देखते संपूर्ण शीशा जमीन पर बिखर चुका था।पिंजरा हटा लिया गया। शीशे का गलनांक लोहे की अपेक्षा काफी कम होने के कारण ऐसा संभव हो सका था।


 किशोर सिंहासन के समक्ष उपस्थित हुआ और सादर बोला-"महाराज!सिंह मुक्त हो चुका है।"


सम्राट ने सगर्व दूत की ओर देखा-"दूत!अपने राजा से कहना हमें खेद है कि हमारे तेज के समक्ष उनका सिंह पिघल कर बह गया।"फिर वह मुड़े-"महामात्य!बालक को पुरस्कार दिया जाए।" और वे उठकर चले गए।


क्या आप जानते हैं,यह किशोर कौन था?यह किशोर कोई और नहीं वरन् चंद्रगुप्त मौर्य था जिसने बाद में कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य का शिष्यत्व प्राप्त कर घनानंद का तख्ता पलट संपूर्ण भारत को संगठित करने का सार्थक प्रयास किया और भारतीय इतिहास में प्रथम भारत-सम्राट बनने का गौरव हासिल किया था।


मनोज श्रीवास्तव

(जुलाई २००२ में प्रकाशित कथा का पुनः प्रकाशन)

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