क्रान्ति कथा:जिसने पत राखी

 क्रांति-कथा (३१ जुलाई पर विशेष)

                  जिसने पत राखी 

वर्ष १९१९ के अप्रैल मास की वह सुबह।उस बगिया में हजारों बच्चे-बूढ़े और जवान चारों ओर फैले सरसों के पीले और मदमाते फूलों व झूमती बालों के बीच से गुजर कर आए थे। सभी मस्ती में हँसी-ठिठोली कर आनंदित हो रहे थे।शाम ढलने को आयी कि चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरे जलियाँवाला बाग में अंग्रेज सेना के जवान घुसने लगे।उन्होंने दीवार के समान्तर अन्दर की ओर एक और दीवार बना डाली। मशीनगनें निहत्थे आबाल वृद्ध नर-नारियों की ओर उठ गयीं।दरवाजे पर खड़े जनरल डायर की आदेशात्मक पिस्तौल गरजी तो मशीनगनों से आग बरस उठी।चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई।भागने का कोई ठौर ठिकाना नजर नहीं आ रहा था।कोई भागा तो कुएँ में जा गिरा।स्त्रियां अपने दुधमुँहे बच्चों समेत या तो गोली खातीं या अपनी लज्जा के निमित्त कुएँ में जा कूदतीं।शीघ्र ही कुआँ लाशों से पट गया।उसमें किसी के बचने का सवाल ही नहीं था।चारों और लाशों के अंबार लग गए।जब भेदने को कोई सीना न रहा तो मशीनगनें शांत हो गयीं।

आज दो दिन बीतने को आए थे। आकाश में चारों ओर गिद्ध मंडरा रहे थे और आज ही सुबह के अखबार में मुख्य पृष्ठ पर डायर का अपने कृत्य को उचित बताते हुए वक्तव्य भी छपा था।सारा देश आग बबूला था।पर शेर की माँद में जाने का साहस करता भी तो कौन?

जवानों की व्यूह रचना बाग को अभी भी घेरे हुए थी। जन-ज्वार की ताकत से परिचित डरी-सहमी सरकार इस काण्ड के स्पष्ट रुप को जनता के सामने ना लाकर लीपापोती की फिराक में थी।रात में तो अगर बाग में पता भी खड़कता तो गोलियों की तड़तड़ाहट शुरू हो जाती।

अनाथाश्रम में बचपन से ही पला एक नवयुवक अखबार के मुख्य पृष्ठ के वक्तव्य को पढ़कर बौखलाया।वह अभी चिंता में मग्न था तभी एक युवती उसके समक्ष रोती-बिलखती आयी।वह युवक के पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगी।युवक ने उसे उठाया और बड़ी नम्रता से पूछा-"क्या बात है बहन?"

अपने आँसुओं की गिरती अविरल धार को रोकने का प्रयास करते हुए वह बोली,"भैया मेरा पति उस बाग में शहीद हो गया है। क्या तुम उसका शव ला सकोगे?"युवक एक क्षण तक सोचता रहा फिर युवती को ढाँढस बंधाता हुआ बोला, "चिंता ना करो बहन।धैर्य से काम लो।रात्रि की प्रतीक्षा करो।हाँ! पहचान के लिए अपने पति का हुलिया जरूर बता देना।"

रात्रि का समय।पेड़ों की छाया ने बाग में व्याप्त अंधकार की कालिमा को और गहन बना रखा था। रक्षकों की दृष्टि से बचता वह युवक जान हथेली पर लिए बाग में प्रविष्ट हो गया। अन्दर उसे शवों के ढेर पर ढेर नजर आने लगे जिन्हें देखते ही उसका माथा चकरा गया,"इतना भयानक अत्याचार!वाहेगुरु!यह क्या हो रहा है?क्या यह तेरी मर्जी के अनुरूप हुआ है?" आँखों में आँसू आ गए। शायद वह बच्चों की तरह बिलख भी पड़ता।कराहें तो कभी की खत्म हो चुकी थीं। शायद कराहते ही गोलियाँ चल जाती रही होंगी।तड़पने वाले शांति पा गए थे।आज तो उसने अपनी नंगी आँखों से लाशों के ढेर में कराहट और छटपटाहट भरा माहौल,एक-एक बूँद पानी को तरसती, मौत का इंतजार करती निरीह मानवता की दम तोड़ने की वेदना का अनुभव उन निर्जीव पड़े चेहरों व उनकी स्थिर आँखों में पढ़कर किया था।वह हठात ठगा सा रह गया।

पर तभी उसे स्वकर्तव्य का ध्यान आ गया। उसने मन को संयत और हृदय को मजबूत किया।चार-पाँच मिनट तो ऐसे ही गुजर गए। संभलते ही वह इन शवों पर जा पहुँचा।वह हर शव छूता और बताए गए चिन्हों के आधार पर उनमें कुछ ढूँढता।थोड़ी देर में उसकी खोज सफल हुई।उसने चुने शव को कंधे पर डाला और जैसे ही आया था वैसे ही बाहर हो गया।सारी सुरक्षा व्यवस्था धरी की धरी रह गई।

बाग से कुछ दूर प्रतीक्षा करती युवती अपने क्रांतिकारी पति का शव पा उस पर गिर पड़ी।वह बिलख उठी।सारा बना खेल बिगड़ गया।मशीनगनें आवाज की दिशा में गरज उठीं।पर युवक ने धैर्य न खोया।उसने शीघ्र शव उठाकर पुनः कंधे पर रख लिया और युवती को सँभालता अँधेरे में छुपता छुपाता शीघ्र दौड़ने लगा।एक गोली उसके पाँव पर लगी पर वह सिंह शावक रुका नहीं।शीघ्र ही उसने अपनी पगड़ी खोली और उसे अपने घाव पर लपेटकर दौड़ लगा दी।वह गंतव्य पर ही जाकर रुका।काफी खून बह चुका था।थकान व कमजोरी आँखों पर छा रही थी।पर वह प्रसन्न था कि वह सफल हो गया था।

विधवा उसे लाख-लाख दुआएँ दे रही थी और साथ ही अपनी आशीष वाणी से राखी के धागों के मूल्य के रूप में वह संकल्प माँग रही थी जिससे उसके पति के साथ हजारों निहत्थे निर्दोषों की हत्या का बदला लिया जा सके।वह एक संकल्प मन ही मन गूँथ रहा था।वह था-'भगीरथ की तरह हजारों आत्माओं को शांति पहुंचाने का संकल्प'।वह मन ही मन प्रण कर रहा था कि खून का बदला खून से लेंगे।

यह युवक कोई और नहीं,शहीद शिरोमणि ऊधम सिंह था जिसने काफी धैर्यपूर्वक उचित समय की प्रतीक्षा कर अंग्रेजों की माँद इंग्लैंड में तत्कालीन पँजाब के गवर्नर सर माइकल ओ डायर की हत्या करने के बाद पेंटनवाला जेल में फाँसी का फंदा ३१ जुलाई १९४० को चूमा और अपना संकल्प पूरा किया।

मनोज श्रीवास्तव

(मई १९९४ में प्रकाशित कथा का पुनः प्रकाशन)

Comments

Popular posts from this blog

रामकथा

'सीतायाः चरितं महत्'

आत्मा की समृद्धि का पर्व