आम आदमी बनाम विपक्ष


         आम आदमी बनाम विपक्ष


सिद्धांततः राजनीति का प्राण सुचिता है।पर व्यवहार में लोकतंत्र में यह साम-दाम-दंड-भेद की नीति से चलती है।इसी कारण आमजन को "दस चोरों में सबसे कम चोर कौन ?" की नीति पर चलना पड़ता है।असली चेहरा भी तभी सामने आता है जब उन्हें परखा जाता है।अतः आम आदमी का मत परिवर्तित होना लाजमी है पर आँकलन अपना-अपना...।


 लोकतंत्र में दो पक्ष सत्ता व विपक्ष हैं। 2014 के पहले सत्ता पक्ष विपक्ष से इतना घृणा करता था कि विपक्ष तो पहले से ही दूर था ही अपने भी दूर हो गए।फलतः विपक्ष सत्ता में आ गया।


 पुराना सत्तापक्ष आज भी घृणा का वैसे ही प्रसार कर रहा है (शायद सत्ता खोने की खीझ बनी हुई है)और आज का सत्ता पक्ष उसे भुना रहा है।फलतःनीतियां नहीं बल्कि विद्वेष की भावना ही महत्वपूर्ण हो चुकी है इस लोकतंत्र में! जिससे टूटे मत पुनः जुड़ नहीं पा रहे क्योंकि आज का विपक्ष(पूर्व सत्ता पक्ष) उनसे घृणा अभी भी कर रहा है।वह अपनी कमी स्वीकार करने को तैयार नहीं।आम आदमी थोड़ा-बहुत नुकसान सह सकता है पर "असम्मान" नहीं।कारण-वह किसी भी पक्ष अथवा सिद्धान्त का मुरीद अथवा बिका नहीं।


आम आदमी अपना जबाब मौका(चुनाव)आने पर ही दे सकता है।तब तक विपक्ष यदि आम आदमी द्वारा सत्ता छीन लेने के कारण उसे दोषी मानते हुए प्रताड़ित करता रहेगा तो वह अपने लिए ही खाई को चौड़ा करता रहेगा।यही आज के विपक्ष की कमजोरी है जो सत्तापक्ष की ढाल बन रहा है। इसमें वर्तमान सत्ता पक्ष का स्वयं का प्रयास नहीं, बस दोनों हाथों में लड्डू अपने आप आ रहा है।


मनोज श्रीवास्तव

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