लघुकथा : पूर्वाग्रह
लघुकथा : पूर्वाग्रह
"आज शाम घर पर कोई ना होगा लक्ष्मी!"
हाय दैया! कितनी बेशर्मी के साथ बोल गया था वह!
पर मेरे मन में हूक सी दौड़ गई।इस घर में काम करते हुए मुझे साल भर होने को आए हैं।मैं जब घर में घुसती हूँ तो वह कभी आगे के कमरे में ही बैठा होता है तो कभी लॉबी में।मुझे देख कर मुस्कुरा भर देता है बस!शायद बीवी से डरता है।इसलिए मुझे कभी-कभी डरता कनखियों से देखता भर लगता है।उसकी मुस्कान से मुझे कभी तो लगता है कि वह मुझे पसंद करता है,पर कभी तो लगता है कि मैं मुगालते में हूँ।बड़े घरों की तो यही रीति है कि बीवी की डाँट और खिच-खिच से आजिज मर्द पराई औरतों को,विशेषकर हम कामवालियों को ललचाई नजरों से देखते हैं और बात करने का मौका तलाशते हैं।पर इस नासपीटे की बीवी से तकरार भी नहीं सुनी है।दोनों कबूतर-कबूतरी की तरह गुटर-गूँ करते रहते हैं।उनके इस प्यार व कलह रहित वातावरण के कारण ही तो मैं आज तक समझ ही नहीं पाई कि उसकी नजर व मुस्कान वासना से भरी, ललचाई हुई है या और कुछ!
पर आज उसके शब्दों ने करंट छुआ दिया।हम औरतों की यह धारणा फिर से सिद्ध हो गई कि ये सारे मर्द जात एक से कमीने होते हैं और बड़े लोगों की जिंदगी भी ऐसी ही दोहरी होती है ।कोई भाँप नहीं सकता।घर में बीवी है पर नजर दूसरों ही.....।
पर मैं भी कुछ कम नहीं।बहुतों को ललचाते देखा है पर किसी को घास नहीं डाली।पर देखूँ इस चूहे में कितना दम है। शाम को घर पर बुलाता है!आज बच्चू को ऐसा मजा चखाऊँगी कि जिंदगी भर....।
यह सोचती मैं शाम को उस घर जा पहुँची। पर यहाँ तो बाहर ही ताला बंद था....।
मनोज श्रीवास्तव
(२८ जून २०१० को दैनिक जागरण कानपुर के साहित्यिक सप्तरंग पुनर्नवा में प्रकाशित लघुकथा का पुनः प्रकाशन)
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