लघु कथा : माँ अच्छी-माँ बुरी
लघुकथा : माँ अच्छी-माँ बुरी !
वय 15 की अल्हड़ किशोरी! विकसित शरीर के प्रति बेपरवाह! क्योंकि बुद्धि का विकास अभी बालोन्मुख! आसपास की चीजों का अवलोकन करती माँ के साथ बाजार में जा रही थी। तभी रास्ते में दो मनचले पीछे हो लिए।पर माँ को तो दीन-दुनिया का अनुभव था।उसने बिना पीछे देखे परिस्थिति समझ ली।एकाएक पलटी।माँ की खा जाने वाली निगाहें देख शोहदों ने कन्नी काट जाने में ही भलाई समझी।किशोरी चैतन्य हुई।उसे वर्तमान का बोध हो आया।परिस्थिति को समझ माँ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर बैठी-"माँ तुम कितनी अच्छी हो!"
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किशोरी के सहपाठी का जन्मदिन!रात में पार्टी!माँ ने समझाया-बेटा!एक तो दूरी दूसरा पापा के दो-तीन के लिए बाहर होने से वह सूर्यास्त के बाद उसे बाहर जाने नहीं दे सकती।वह फोन पर ही विश कर ले।ऊँच-नीच समझाने का प्रयास किया पर बेटी जिद पर थी...दोस्तों के साथ मस्ती जो करनी थी।अंततः माँ ने वीटो- पॉवर इस्तेमाल किया-रागिनी!तुम्हें कहीं नहीं जाना।तुम्हें मेरे पास ही रहना है जब तक पापा नहीं आ जाते!बेटी नाराज़ होकर पैर पटकती कमरे में चली गयी।गुस्से में बड़बड़ाई-"माँ तुम कितनी बुरी हो!"
मनोज श्रीवास्तव
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