पितृ-तर्पण व श्राद्ध के निहितार्थ
पितृ-तर्पण व श्राद्ध के निहितार्थ
दुनिया में हमारे अस्तित्व का कारण हमारे पूर्वज हैं।भारतीय ऋषियों की श्राद्ध- व्यवस्था उनकी अपूर्व दूरदर्शिता का अनूठा उदाहरण है।सारे संसार में पूर्वजों की पुण्य स्मृति को सुरक्षित रखने की ऐसी सटीक परंपरा मिलना दुर्लभ है।
ध्यान रखें, पितृ तर्पण व श्राद्ध विधि सहित किसी भी आर्ष ग्रन्थ में कहीं भी जीवित माता-पिता व बुजुर्गों का तिरस्कार करने की वकालत नहीं की गई है।हमारी संस्कृति कहती है
अभिवादनशीलस्य
नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते
आयुर्विद्या यशो बलम्।।
( जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।)
ऐसे में "असल श्राद्ध व तर्पण जीवित रहते" जैसे प्रश्न खड़े कर हम अपने अपराधों को छिपा कर अपनी ओछी सोच का प्रमाण देते हैं।
शास्त्रों में मनुष्य को तीन ऋण (देव,ऋषि व पितृ) से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है।श्राद्ध पितृ ऋण से मुक्ति का साधन बताया गया है।मान्यता है कि हमारे पूर्वज श्राद्ध दिवसों में गोलोक से पृथ्वी लोक पर विचरण के लिए आते हैं और हमारे आचरण का अवलोकन करते हैं।अपनी उत्कृष्ट जीवन पद्धति से ही हम अपने पूर्वजों को गौरव व सन्तोष का भान करा सकते हैं।
स्वर्गीय पिता,पितामह,और प्रपितामह तथा स्वर्गीय मातामह,प्रमातामह,वृद्ध-प्रमातामह व उनकी पत्नियों को जलांजलि अर्पित कर दो परिवारों की तीन पीढ़ियों के दम्पत्तियों का सादर स्मरण करने से इन परिवारों के इतिहास की स्मृति सहज ही जागृत होती है।संस्कृति, इतिहास और परंपरा को सुरक्षित रखने का यह कितना अचूक विधान है।
तर्पण शब्द का अर्थ है-पूर्ण तृप्त करना।जबकि श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है।
श्रद्धार्थमिदम् श्राद्धम्।
श्रद्धया इदम् श्राद्धम्।।
पितरों के उद्देश्य से विधि पूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किए जाते हैं वही श्राद्ध है।
"पितृ-यज्ञ" शब्द ऋग्वेद(१०/१६/१०) में आया है जो तीन प्रकार से सम्पादित होता है-तर्पण द्वारा,बलि द्वारा एवं प्रतिदिन श्राद्ध द्वारा।
"मनु" (२/१७६) के मत से प्रतिदिन देवों,ऋषियों एवं पितरों को तर्पण करना चाहिए अर्थात् जल देकर उन्हें परितुष्ट करना चाहिए...।"
ऋषियों ने "पितृलोक"की भी अनूठी कल्पना की है। यह "पितृ-लोक" अन्य देव-लोकों- विष्णु-लोक, शिव-लोक, ब्रह्म-लोकादि से भी उच्च माना गया है। पितृलोक में पहुँचने वाली आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता जबकि अन्य लोको में पहुँचने वाली आत्माओं को पुण्य भोग के बाद पुनः जन्म लेना पड़ता है।
"पितर" यानी पितृ-देव व्यक्तियों के अपने निजी पूर्वज या संबंधी ही होते हैं। अतः वह शीघ्र ही प्रसन्न होकर श्राद्ध या तर्पण करने वाले व्यक्ति का सब प्रकार से कल्याण करते हैं।जबकि अन्य देवी-देवता इतनी सरलता से प्रसन्न नहीं होते।
हम सब कुछ पीछे छोड़ते हुए आगे निकल जाते हैं मगर यादें कभी-कभी रास्ता रोककर खड़ी हो जाती हैं।यदि परिवार में अपने संबंधियों का स्मरण प्रतिदिन श्रद्धा से होता रहे, तो पारस्परिक सद्भाव में कमी आ ही नहीं सकती। जिन परिवारों के पूर्वजों का स्मरण श्रद्धा पूर्वक किया जाता रहेगा,उनके वर्तमान वंशजों में प्रीति भाव की वृद्धि सहज ही होती रहेगी।यही वह कारक है जिससे हम अपने में संकुचित न रहकर बृहद सोच के साथ अपने माता-पिता व रिश्तेदारों से मधुर संबंध बनाए रख सकते हैं। इसमें विविध परिवारों में सद्भाव स्थापित होने से पूरे समाज में एकता की भावना विकसित होगी जो राष्ट्र को एक सूत्र में आबद्ध कर सकेगी।
~मनोज श्रीवास्तव
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