कानून वापसी का किसानों पर प्रभाव

कृषि सुधार कानूनों की वापसी का किसानों पर प्रभाव


प्रधानमंत्री ने तीन कृषि सुधार कानून वापस ले लिए। कोई मान रहा है अहंकार हार गया;कोई कह रहा है लोकतंत्र विजयी हुआ है;कोई सरकार की हार व आंदोलन की जीत के रूप में इसे रेखांकित कर रहा है;कोई इसे किसानों की जीत बता रहा है पर सच्चाई यही है कि "कृषि सुधार" हार गए।आइए चर्चा करते हैं उन तथ्यों की जो इस कानून के जरिए किसानों को मिलने वाले थे और वह उसे अब खो चुके हैं।


१- कृषि उत्पादों के व्यापार व जिंसों की अंतरराज्यीय आवाजाही पर पहले वाले प्रावधान पुनः लागू हो जाएंगे।अब पुनः किसान अपनी उपज की एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना मंडी शुल्क चुकता किए नहीं ले जा सकते हैं इससे उपज की लागत बढ़ेगी ।


२- स्थानीय मंडियों के कानून के मकड़जाल और आढ़तियों का हस्तक्षेप जारी रहेगा। किसानों को अपनी निर्धारित व अधिसूचित मंडी से ही उपज को बेचने की अनुमति होगी।वह अपनी उपज ना तो अपनी मंडी के दायरे से बाहर भेज सकता है और ना ही कोई दूसरा खरीदार उसके खेत पर उपज की सीधी खरीद कर सकता है। इसके लिए उसे अतिरिक्त शुल्क का भुगतान करना होगा।


३- कृषि प्रसंस्करण उद्योग को धक्का लगेगा।उद्योग को गुणवत्ता युक्त कच्चे माल की कमी का सामना करना पड़ेगा।कांट्रैक्ट के प्रावधानों से किसानों को उनके खेत पर ही अच्छा मूल्य प्राप्त होने की आशा अब समाप्त हो गई।साथ ही प्रसंस्करण इकाइयों की सहूलियत का भी रास्ता भी बंद हो गया।

   वस्तुतः फूड सेक्टर की कंपनियों की सीधी माँग से जहाँ किसानों को अधिक लाभ होता वहीं कंपनियों को भी उचित मूल्य पर गुणवत्ता वाली उपज प्राप्त होती।


४-घरेलू व्यापार के साथ जिंसों के निर्यात का प्रभावित होना तय है।


५- कृषि क्षेत्र में कानूनी सुधार की जिम्मेदारी अब राज्यों पर पुनः लौट आई है।


६-सरकारी मंडियों के साथ प्राइवेट मंडियों की स्थापना से कारोबार में प्रतिस्पर्धा का खुलने वाला रास्ता पुनः बंद हो गया है।इस क्षेत्र में 500 प्राइवेट कृषि मंडियों के खोलने का प्रस्ताव तैयार था जो अब ठप हो जाएगा। ज्ञात रहे सहकारी संगठन नैफडे ने 200 मंडियों की स्थापना का मसौदा तैयार कर काम शुरू कर दिया था, आधा दर्जन कृषि मंडियों में काम चालू भी हो चुका था।


७- नई मंडियों की स्थापना के लिए सहकारी संस्थाओं के राज्यों के कानून के तहत लाइसेंस लेना पड़ेगा यानी लाइसेंस राज की वापसी होगी।


८-नई मंडियों में आढ़तियों का प्रावधान भी करना पड़ेगा।यानी बिचौलियों की बढ़ोतरी तय है जिससे कृषि उपज की लागत में वृद्धि होना जारी रहेगा।


९-आवश्यक वस्तु अधिनियम का दायरा जो नए कानून में सीमित किया गया था कानून हटते ही वृद्धिगत हो गया।ध्यान रहे पुराने कानून में राज्य सरकारें विभिन्न कृषि जिंसों के मूल्य बढ़ते ही आवश्यक वस्तु अधिनियम लागू कर देती हैं जिससे किसानों को नुकसान होता है।नए कानून में किसानों को नुकसान से सुरक्षित किया गया था।अब कृषि-कानून-सुधार की वापसी के साथ ही पुराने कानून लागू हो गए यानी किसानों को नुकसान के लिए पुनः तैयार रहना है।


१०- राज्य सरकारें फिर सेस और मार्केट फीस लगाएंगी। सब जानते हैं कि कारोबारी यह सब शुल्क किसानों की कमाई से ही काटते हैं।तो कीमत बढ़ना स्वाभाविक है।


११- कानून में प्रावधान किया गया था कि मंडी कारोबारियों को पूरा रिकॉर्ड रखना होगा और पैन देना होगा।कानून वापस होने से फिर बिना रिकॉर्ड की खरीद बिक्री फले फूलेगी और किसानों के दमन में कारोबारियों को भरपूर मदद मिलेगी।

 

१२-कानून के तहत किसानों को  तीन दिन के भीतर अपनी उपज का मूल्य मिलने का प्रावधान किया गया था, लेकिन अब फिर किसानों को भुगतान पाने के लिए कारोबारियों की इच्छा पर निर्भर रहना पड़ेगा।


१३- कानून में व्यवस्था थी कि किसी भी तरह के विवाद का निपटारा व्यापार क्षेत्र के भीतर ही हो,पर आन्दोलनजीवी चाहते हैं विवादों को सिविल कोर्ट में ले जाया जाए।अदालतों में  मामलों के निपटारे में पाँच से दस साल तक का समय लगना आम है।निश्चिततः गरीब किसान सिविल अदालतों के चक्कर काटने को मजबूर होंगे जो कृषि विकास में रोड़ा होगा।


१४- कानून में किसानों को किसी कांट्रैक्टर से अनुबंध के मामले में सुरक्षा प्रदान की गई थी अब किसान के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है।


१५- कानून में जमाखोरी पर प्रतिबंध का प्रावधान था। अक्सर जमाखोरी के कारण कीमतें आसमान छूने लगती थीं।कानून वापस हो जाने के बाद कारोबारियों द्वारा जमाखोरी को बढ़ावा मिलेगा,जो किसान व ग्राहक दोनों के लिए नुकसानदेह है। 


१६-आंदोलन जीवी यह भ्रम फैला रहे हैं कि किसानों को अपनी पूरी फसल बस दो बड़े कारपोरेट के हाथों बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।क्या भारत में बस दो ही कारपोरेट हैं? क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है? क्या कानूनों के वापस होने से यह सुनिश्चित होगा कि ये कारपोरेट उन बिचौलियों से आनाज नहीं खरीदेंगे?


यह सारे तथ्य उन छोटे किसानों को कृषि में लागत व विपणन में सुरक्षा प्रदान करते थे जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है और जिनकी संख्या लगभग 80% ( लगभग 10 करोड़ परिवार)है।अब वे इसका लाभ खो चुके हैं ।


कृषि कानूनों को रद्द करना असल में सुधारों के चेहरे पर तमाचा है इससे किसान नहीं बल्कि बिचौलिए जीत गए हैं और नरेंद्र मोदी हार गए हैं।


अब आगे फिर इन्हीं सुधारों की माँग उठेगी और फिर से राजनीति चमकाई जाएगी।


मनोज श्रीवास्तव

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