वह बालक : ऐतिहासिक बाल कथा
वह बालक : ऐतिहासिक बाल कथा
ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी का उत्तरार्ध काल।उत्तर भारत के महानतम साम्राज्य मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में मगध दरबार।महाराज घनानंद अपने सभासदों के साथ बैठे हुए थे।दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था। लगता था दरबार किसी अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या के समाधान में निमग्न था। यद्यपि इतने विशाल साम्राज्य के राजकाज में नित-नवीन समस्याओं का सर उठाना कोई नई बात ना थी।वह भी विद्वत-जनों की मगध सभा के सामने कोई भी समस्या अपना सर उठाते ही दमित कर दी जाती थी।पर आज की दशा कुछ और ही थी क्योंकि महाराज की उच्च ग्रीवा अपने सभासदों में से प्रत्येक के ऊपर अपनी दृष्टि जमाते हुए आगे बढ़ती जा रही थी मानो वह प्रत्येक की क्षमता को नजरों से तौल रहे हों।सम्राट से नजर मिलते ही प्रत्येक अपने नेत्र नीचे कर लेता था।दरबार के बीच में एक विदेशी सर उन्नत किए खड़ा था मानो वह हौले- हौले पूरे दरबार को चुनौती दे रहा हो।उसके साथ तीन अनुचर खड़े थे जिनमें से प्रत्येक के हाथ में एक-एक थाल था।पहले थाल में दहकते हुए अंगारे थे,दूसरे में सरसों के दानों का ढेर था और तीसरे में एक मीठा फल था।
महाराज ने अंततः अपनी दृष्टि महामात्य राक्षस पर जमाते हुए कहा-"महामात्य! तो मगध इस मित्र शासक के संदेश को ग्रहण करने व उसका सार्थक उत्तर देने में असमर्थ माना जाए?क्या विश्व के सिरमौर विद्वानों की सभा माने जाने वाले मगध में एक भी व्यक्ति....."
"सम्राट की जय हो!"तभी दर्शकों के मध्य एक कोने से आवाज आई।सभासदों सहित सम्राट की नजरें आवाज की दिशा में उठ गईं। उस कोने से एक किशोर आगे बढ़ा।उसने पुनः सर झुकाते हुए कहा- "महाराज क्या मगध मित्र को उत्तर देने का अधिकार मुझे प्रदान करेंगे?" सभा हठात् इस किशोर के दुस्साहस से सन्न रह गई।जहाँ इतने मूर्धन्य विद्वान इस समस्या की सर-पूँछ समझने में असमर्थ रह गए थे वहीं खेलने खाने की उम्र वाले इस किशोर का टाँग अड़ाना वरिष्ठ जनों को अखरा भी।महाराज ने इसे धृष्टता समझा।पर उन्होंने एक मनोरंजन के लिए आज्ञा देना उचित समझा। अतः मन के क्रोध पर काबू पाते हुए गंभीरतापूर्वक कहा-" आज्ञा है बालक!पर याद रखना,उत्तर से पहले मुझे संतुष्ट करना होगा। अन्यथा तुम्हें मेरे पालतू भूखे सिंह का आहार बनना पड़ेगा।"
किशोर शर्त को नजरंदाज करते हुए बोला-"महाराज दूत को विश्राम करने की आज्ञा दें।"महाराज ने ऐसा ही किया।दूत के जाते ही किशोर बोला-"सम्राट प्रत्युत्तर में हमें एक घड़ा पानी,एक तीतर व एक अमूल्य रत्न भेजना होगा"
राजा ने पूँछा- "क्यों इसका क्या तात्पर्य है?"
किशोर-सम्राट हमारे मित्र राजा ने संदेश भेजा है कि उसका क्रोध दहकते अंगारों की तरह है और उसके पास सरसों के दानों की तरह अनगिनत सैनिक है यदि साहस हो तो युद्ध स्वीकारो, पर हमारी मित्रता मीठे फल जैसी है।"
दूत के संदेश की व्याख्या सुन महामात्य उत्तेजना में बालक के निकट आ गए थे। उनकी आँखें चमक रही थीं।कहाँ सभा के विद्वान सम्राट के क्रोध की आशंका से डूबते-उतराते किंकर्तव्यविमूढ़ हुए जा रहे थे वहीं इस किशोर ने इस समस्या की गुत्थी काफी हद तक सुलझा दी थी।बिना समय गंवाए महामात्य राक्षस बोल उठे -"और हमारे भेजे जाने वाले प्रत्युत्तर का क्या तात्पर्य है?" बालक हौले-हौले मुस्कुराता हुआ बोला "आर्य!हमारे संदेश में पानी का अर्थ है- हम नीति से तुम्हारे क्रोध को शांत कर सकते हैं।तीतर का मतलब है कि हमारा एक सैनिक तुम्हारे सैकड़ों सैनिकों को समाप्त करने के लिए काफी है।अमूल्य रत्न सिद्ध करेगा कि हमारी मैत्री अमूल्य व सदा एक जैसे रहने वाली है तुम्हारे फल की तरह अल्पजीवी नहीं।
दरबारियों की चिंता मिट चुकी थी।वे प्रमुदित थे सम्राट घनानंद का अभिमान आहत हो गया था।वे उत्साहित तो ना दिखे पर उन्होंने महामात्य को आज्ञा दी-"दूत को दरबार में बुलाकर उत्तर सौंप दिया जाए और किशोर को पुरस्कृत किया जाए।" फिर वे उठकर चले गए।
मगध के शासक व उसके दरबार के अभिमान को खुली सभा में आहत करने वाला यह किशोर कोई और नहीं वरन् पिप्पलिवन के मौर्य व देवी मुरा का पुत्र चंद्रगुप्त था जिसने आगे चलकर तक्षशिला Lविश्वविद्यालय के राजनीति के आचार्य चाणक्य का शिष्यत्व प्राप्त किया और मगध से नंद वंश का समूल अंत किया।
मनोज श्रीवास्तव
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