भाषाई अन्याय के विरुद्ध आशा

 भाषाई अन्याय के विरुद्ध आशा

दिनाँक 4 जून को दैनिक जागरण समाचार पत्र में डॉ विजय अग्रवाल ने अपने लेख "प्रशासन का भी भारतीयकरण होना चाहिए" में सिविल सेवा परीक्षा में औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी के प्रभुत्व एवं जकड़न को खत्म किए जाने की वकालत की है।परीक्षा में व्याप्त भाषाई अन्याय की अंदरूनी जटिलताओं के कारण सिविल सेवा परीक्षा में औसतन 5 प्रतिशत छात्र ही हिंदी माध्यम से परीक्षा देना पसंद करते हैं और उनमें सफलता का प्रतिशत तो नगण्य है।अतः गैर अंग्रेजी भाषियों को भाषा संबंधी पूर्ण स्वतंत्रता देने की आवश्यकता है।यद्यपि अंग्रेजी को वैश्विक भाषा के नाम पर थोपने का काम होता रहा है और नौकरशाही भी इसमें बाधा पैदा करने की कोशिश करती रही है। क्योंकि वर्तमान भाषाई व्यवस्था कुछ मुट्ठी भर लोगों को एक अप्रत्यक्ष विशेषाधिकार देती है।


पिछले कुछ वर्षों में शासन प्रशासन द्वारा आशा जागृत करने वाले कदम उठाए गए हैं।यथा भाषाओं को गर्व से सिर उठाकर संवाद करने का अवसर मिला है।सरकार ने ईमेल में "इण्डिया" के स्थान पर "भारत" शब्द रखने का निर्णय लिया है।"वोकल फॉर लोकल"के नारे से ग्रामीण उत्पादों को वैश्विक पहचान दिलाने की ऐतिहासिक पहल स्वदेशी जागरण के रूप से हुई है। संयुक्त राष्ट्र को हमारी सरकार ने आठ लाख डॉलर हिंदी भाषा के प्रचार के लिए प्रदान करने की घोषणा की है।भारत के प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश ने न्याय के भारतीयकरण लिए अपनी सहमति जताई है।गूगल ने संस्कृत और भोजपुरी भाषाओं में अनुवाद की सुविधा उपलब्ध करा कर सर्व भाषाओं के उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है।


स्पष्ट है भारत को आजादी के अपने अमृत महोत्सव पर स्वतंत्रता शब्द की आत्मा तक पहुँचने की ऊर्जा की अनुभूति हो रही है। हमें उस दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा है जब आंग्ल भाषा की प्रभुता समाप्त होगी।

मनोज श्रीवास्तव

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