भद्रकाली मंदिर के बहाने

 भद्रकाली मन्दिर के बहाने

~मनोज श्रीवास्तव

मैं इस तथ्य से पूर्ण सहमत हूँ कि "मंदिर-मस्जिद या मंदिर- मजारों के विवाद यदि पंथनिरपेक्ष नेताओं और बामपंथी बुद्धिजीवियों के दखल से परे रहें तो उनके सौहादपूर्ण समाधान की गुंजाइश बनती है। पावागढ़ विवाद सुर्खियों से भी दूर रहा और बुद्धिजीवी एवं इतिहासकारो की मक्कारी से भी !" संभवत: हिन्दू आस्था के  केंद्र,बावन शक्तिपीठों में से एक,ग्यारहवीं सदी के प्रसिद्ध कालिका माता मंदिर के शिखर को 1484 ईस्वी में चंपानेर शासक जयसिंह रावल के समय गुजरात सल्तनत के तत्कालीन कुख्यात शासक महमूद बेगड़ा द्वारा तोड़कर ठीक ऊपर अदनपीर की दरगाह स्थापित कर देने के समाज विध्वंसक कृत्य का समाधान हो सका है जो भारतीय सभ्यता की आहत हुई अस्मिता और क्षय हो रहे वैभव को वापस पाने का सुदीर्घ और धैर्यशाली प्रयास है।यह बात दीगर है कि कालान्तर मैं कनकाकृति महाराज दिगंबर भद्रक ने अट्ठारहवीं शताब्दी में मंदिर का पुनर्निर्माण तो करवाया परंतु दरगाह बने होने की वजह से शिखर ना बन सका।

यह भी ज्ञातव्य हो कि आईबेरिया प्रायद्वीप, वर्तमान में स्पेन के बाद भारत विश्व का पहला राष्ट्र है जो इस्लामी आक्रमण द्वारा थोपे गए अपमान के प्रतीकों से मुक्ति पाते हुए धीरे-धीरे ही सही पर सांस्कृतिक धारा को परिमार्जित करता दृष्टिगोचर हो रहा है। 

यहाँ बामपंथी इतिहास का यह झूठ भी बेनकाब हुआ है जिसमें कुख्यात महमूद बेगड़ा, जिसने सोमनाथ, द्वारिकाधीश, रूद्र महालय और पावागढ़ सहित अनेको मंदिरों का विध्वंस किया; वह मतांध सुल्तान जिसने जूनागढ़ के अपनेही जागीरदार राव मंडलिका को यह बताकर उस पर हमला किया कि वह अपने हिन्दू होने की सजा पा रहा है और गुजरात सल्तनत का वह क्रूर शासक जिसने जूनागढ़ के राजा भीम का एक - एक अंग काटकर अहमदाबाद के बारह द्वारों पर टाँग दिया, उसे बामपंथी इतिहास माफियाओं ने कलाप्रेमी और हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक ठहराने में कोई कोर-कसर नहीं छोडीं ।

18 जून को पावागढ़‌ कालिका मंदिर पर ध्वजारोहण के समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह वक्तव्य विचारणीय है -

"सदियाँ बदलती हैं, युग बदलते हैं, परंतु आस्था का शिखर शाश्वत रहता है।' करोड़ों लोगों की आस्था को उसका उचित सम्मान दिलाना किसी भी न्यायप्रिय राष्ट्र की जिम्मेदारी है।यही समीचीन है।

~मनोज श्रीवास्तव

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