अधीर की अधीरता के बहाने

 अधीर की अधीरता के बहाने

प्रस्तुति - मनोज श्रीवास्तव

अधीर रंजन द्वारा दो-दो बार "राष्ट्रपत्नी" शब्द का प्रयोग करना मन की भड़ास का बाहर आना ही हो सकता है;जबान का फिसलना कहना सिर्फ बहाना है,क्योंकि बंगाली में भी राष्ट्रपति शब्द ही अपना अस्तित्व रखता है राष्ट्रपत्नी कतई नहीं।

वास्तव में भाजपा इस मुद्दे को ऐसा उछाल देगी इसका उन्हें अहसास नहीं था जो वर्त्तमान काँग्रेस-नेतृत्व की अपरिपक्व राजनीति का प्रमाण है।

वर्त्तमान संसद सत्र में मंहगाई,बेरोजगारी, अग्निपथ, खाद्य पदार्थों पर जी एस टी जैसे मुद्दों पर सरकार पर दबाव बनाते सफल दिख रहे विपक्ष की हवा काँग्रेस दल-नेता  की राष्ट्रपति पर की गई इस अशोभनीय टिप्पणी ने फुस्स कर दी। इसे भी विपक्ष को स्वीकार करना होगा,और अपने नेतृत्व का पुनः समीक्षात्मक दृष्टि से आँकलन करना होगा।

संसद के सदन बात और बहस की जगह हैं।पर देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल की अध्यक्षा द्वारा उसी सदन में तल्खी से फरमान जारी करना "डोन्ट टॉक टु मी" उनका "राजशाही" परिवार का सदस्य होने का अहंकार व दम्भ है या अपनी पारंपरिक सीट अमेठी से अपने पुत्र के पराजय की हताशा? इस पर भी लगे हाथ विचार करना समीचीन होगा।

यह भी देश का दुर्भाग्य ही है कि अधिकांश क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों को निजी उद्यम की भाँति चलाया जा रहा है।राजनीतिक दलों में खत्म होता लोकतंत्र व पोषित होता राजतंत्र,लोकतंत्र के आधार स्तंभ संसद की कम होती महत्ता का जिम्मेदार है।

~प्रस्तुति-मनोज श्रीवास्तव

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