श्रद्धया इदं श्राद्धम्
पितृपक्ष पर विशेष
श्रद्धया इदं श्राद्धम्
@मानव
पितृपक्ष
अवसर है, उत्सव का!
उत्सव तभी सुशोभित होगा,
जब पितरों का आशीष मिलेगा।
जब सबकी भागीदारी होगी।
यह भावना
पूर्वजों के प्रति
स्वाभाविक श्रद्धा है,
सम्मान है,
सहज उदारता है,
जो लोक का प्रबल गुण है।
मानव जाति का जीवनचक्र
विगत दिवंगत को प्रणाम
और आगत का सम्मान है।
भारतीय जीवन दर्शन
प्रतिपादित करता है
देह यात्रा पूर्ण होने पर भी
जीवन यात्रा चलती रहती है।
क्योंकि आत्मा अजर-अमर है।
जीवन चक्र पूर्ण करके ही
आत्मा ब्रह्माण्ड में
विलीन हो जाती है।
पूर्वज इस लोक से
विदा होने के बाद भी
सूक्ष्म रूप में रहते हुए
हमारे सुख-दुख
प्रभावित करते हैं।
भौतिक शरीर छोड़ने पर
आत्मा द्वारा धारण
सूक्ष्म शरीर की
प्रिय के प्रति
अतिरेक की अवस्था
"प्रेत" है। (गरुड़ पुराण)
सूक्ष्म शरीर वाली आत्मा में
मोह, माया,
भूख और प्यास का
अतिरेक होता है।
पिण्ड दान के उपरांत
प्रेत पितरों में
सम्मिलित हो जाते हैं।
यह पितरों में मिलाना है।
निर्बल को
क्षमता भर दान से
पितर संतुष्ट होते हैं
कि उनकी संतान में
करुणा है
दया है,
लोक कल्याण की चिन्ता है।
पितरों के सम्मान का उद्देश्य है
समाज की चिंता का
पितरों का स्मरण
सुखद होता है,
शुभ-अशुभ नहीं!
मृत्योपरांत लोग
विस्मृत न कर दें
माता पिता को
इसलिए बना है विधान
श्राद्ध करने का।
जीवन धारण करने
व हमारे विकास में
योगदान देने वाले
माता-पिता व पूर्वज का
पितृऋण
सनातन के तीन ऋणों में
सर्वोपरि है।
हम सब कुछ
पीछे छोड़ते हुए
निकल जाते हैं
मगर यादें
कभी-कभी
रास्ता रोककर
खड़ी हो जाती हैं,
क्योंकि लोक पितरों को
विस्मृत नहीं होने देता,
लोकसंस्कृति
कथा-माध्यम से
पूर्वजों का स्मरण करती है,
नित्य तर्पण देती है।
पितर तुम्हें प्रणाम !
~मनोज श्रीवास्तव
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