त्रिशूल

 त्रिशूल



      @मानव

आधिदैविक,

आधिभौतिक

और आध्यात्मिक 

ये वे तीन ताप हैं

अपने भक्तों के लिए

जिन्हे हरने के निमित्त 

भगवान शंकर 

त्रिशूल धारण करते हैं। 


ज्ञान दृष्टि में 

त्रिताप की वास्तविक सत्ता नहीं 

वरन्  मिथ्या रूप है 

जो तीनों कालों में 

साधकों को कष्ट देती है। 


भक्ति-दृष्टि में ये त्रिताप 

भगवान का प्रसाद हैं 

जो विष रूप होकर भी 

अमृत सा परिणाम देते हैं। 


कर्म दृष्टि से 

त्रिताप से मुक्ति हेतु

साधना करके निर्मूलन 

आवश्यक है।

 

शरणागति मार्ग में साधक नहीं

वरन् उसका आराध्य ही 

उसका कर्ता है;

जब कर्तृत्व है ही नहीं 

भोक्तृत्व भी स्वत: 

निर्मूल हो जाता है।


दुख निर्मूलन के लिए 

दुःख के मूल कारण का

अधिष्ठान अज्ञान है।

काल,कर्म,स्वभाव

और गुण-मायाजाल 

वे कारण हैं

जिनसे त्रिताप 

ताप प्रतीत होता है।


ईश्वर से भिन्न

हर एक मूल संसारी है।

अपनी इच्छाओं के वशीभूत

स्वनिर्मित मूल ही 

दुःख के मूल हैं;

ईश्वर, ग्रंथ अथवा धर्म

से भिन्न 

मूल होने के कारण

दुःख से मुक्त होना असंभव है।


शरीरजन्य रोगादि

आधिभौतिक शूल हैं 

जबकि आध्यात्मिक शूल

सिर्फ स्वयं को ज्ञानी 

अन्य को अज्ञानी व मूर्ख

मानने को विवश कर देता है। 

जो दूसरों को बुद्धिमान मानकर

सबकी सुनने 

और सबसे सीखने की 

इच्छा रखता है 

चरम लक्ष्य पाता है 

यही परम सत्य है

फलत: साधक 

ईश्वर की असीमता का 

दर्शन कर लेता है।


सुख की कामना से

पुरुषार्थ का समुद्र-मंथन होने पर 

विष निकलेगा

जिसमें भगवान की कृपा देखना

ज्ञान व भक्ति का सार है।

आदिदेव शंकर 

इस विषपान केलिए

सदा तैयार होंगे।


इस सत्य को स्वीकार करना 

कि विष अमृत का पूरक है

भगवान की भक्ति है,

ये दोनो साथ रहेंगे,

यदि इस सत्य को नकारेंगे

त्रिशूल में फँस जाएँगे, 

शिवकृपा से वंचित रह जाएंगे।


शंकरजी सदाशिव हैं 

वे अपने मूल स्वरूप को बदलते नहीं

शंकर जी का त्रिशूल ही 

साधक के तीनों शूल

निर्मूल कर सकता है।

त्रय : शूल

निर्मूलनं शूलपाणिम्।


 ~ मनोज श्रीवास्तव

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