होली और स्त्री
होली और महिला दिवस पर
होली और स्त्री
@मानव
"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते
रमन्ते तत्र देवता।"
जब देवता का निवास ही
नारी के पूजे जाने पर निर्भर है
तो कोई भी अनुष्ठान
अथवा त्यौहार
बिना स्त्री पूर्ण कैसे होगा?
हम नदी,धरती, गाय को
माँ मानते हैं;
प्रकृति का जननी समान
आदर-सत्कार करते हैं,
आराध्य शिव
स्वयं अर्धनारीश्वर कहलाते हैं,
जगत को गीता-ज्ञान देनेवाले
योगेश्वर श्रीकृष्ण
स्त्रीत्व प्राप्त करने के लिए
राधा-रूप धरकर
निधिवन में रास रचाते हैं,
जिसके दर्शन की मनोकामना
योगी, ज्ञानी,ध्यानी करते हैं,
उस स्त्रीत्व को पाना
हर साधना हेतु
परमावश्यक है।
स्त्री सृष्टि की श्रेष्ठतम कृति है।
बिना स्त्रीत्व लब्ध-सिद्धि
सृजन असंभव है;
मातृत्व दैवीय शक्ति है,
स्त्री की सृजन शक्ति
उसे ईश्वरीय बनाती है;
स्त्री सृष्टिका मूलाधार है;
स्त्री के होने से
अर्थ है,सामर्थ्य है;
स्त्री होना ही सौभाग्य है।
स्त्री के होने से
उत्सव है,
उत्साह है,
रस है,
जीवन है।
हमारी उत्सवधर्मी संस्कृति
इसीलिए स्थापित है
क्योंकि हर उत्सव का प्राण
स्त्री है।
होली के उत्सव गान में
गीतों की आत्मा स्त्री है,
कहीं लजाई पत्नी है,
तो कहीं प्रियतमा है,
कहीं विरहणी,
तो कहीं चपल चंचला है,
त्यौहार हो या मांगलिक कार्य
बिना स्त्री नहीं होते।
रस हो या रास,
होली हो या अन्य त्यौहार,
स्त्री बिना हर्षोल्लास अधूरा है।
राधा हो या गोपी
बुआ हो या भाभी
प्रेमिका हो या सखी
होली का वास्तविक रंग
स्त्री है।
यह होली का रास ही है
जहाँ सृष्टि को नचाने वाले
श्री हरि कृष्णावतार में
स्वयं नाचते हैं,
कामदेव को भस्म करने वाले
अर्द्धनारीश्वर बन जाते हैं।
गुझिया से गुलाल तक
स्त्री बिना होली अधूरी है।
यदि न हो स्त्री की मर्यादा
तो होली बन जाती है
हुड़दंग !
(२)
होलिका ने
डाह और विद्वेष भाव में
प्रहलाद को नष्ट करना चाहा
पर हृदय में पाप लिए
जलन की अग्नि में
स्वयं जल गई।
वह संदेश दे गई
होलिका दहन में
हमारे मन के विकार
होलिका की ज्वाला में ही
तिरोहित हो जाएं।
~मनोज श्रीवास्तव
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