उल्लू:लघु व्यंग


लघु व्यंग्य

 उल्लू

          @मानव

पूरे प्रदेश में [यू० पी०] बोर्ड की परीक्षाएं सबाब पर थीं। कस्बे के लब्ध प्रतिष्ठित विद्यालय के परीक्षार्थियों का सेण्टर तीन किमी दूर गाँव के इण्टर कालेज में था।सूर्य की लाली फूटने के साथ बच्चे साइकिल पर सवार उसी ओर भागे जा रहे थे।पक्की पर सूनी ग्रामीण सड़क अंततः आम व महुआ के एक विशाल बाग को पार कर स्कूल के सामने से गुजरती थी।इसी के पास एक पुलिया पर दो-तीन बच्चे अपने अभिभावकों के साथ बैठे उनसे निर्देश ग्रहण कर रहे थे।तभी मैं भी अपने दो मित्रों के साथ साइकिल से गुजरा।स्कूल सामने देख पुलिया के दूसरी ओर विश्राम करने व अपने शेष साथियों की बाट जोहने की नीयत से हम सभी वहीं ठहर गए।हमारा ध्यान बराबर सड़क के दूसरी ओर खड़े समूह पर गया जहाँ खड़े एक अभिभावक बच्चों को समझा रहे थे.... "बेहिचक पुर्जी से उतार लेना,मैंने यहाँ के मास्टरों से बात कर ली है,जरूरत पड़ने पर इनसे बाद में भी निपट लूँगा।मैं यहीं खड़ा रहूँगा।अगर बैच [उड़नदस्ता ] आ गया तो इस पुलिया से दिखते ही उल्लू की बोली लगाऊँगा और तुम लोग पुर्जी फेंक देना....।" [ क्योंकि दिन में उल्लू सोते हैं फलतः बोलते नहीं ] 

मैं अपने मित्रों के बीच फुसफुसा उठा-"बेशक तुम जैसे अभिभावक उल्लू ही हो सकते हैं।" 

वे मेरे द्वारा धीरे कहे गये इस कथन को सुन चुके थे।उन्होने खीसें निपोर दीं क्योंकि उनका आत्मसम्मान तो पहले ही मर चुका था।ऐसे में नकल से पास अपने पाल्य की चिंता उन्हें कहाँ होगी?

प्रस्तुति- मनोज श्रीवास्तव

 (स्वानुभूत,स्वलिखित)

Comments

Popular posts from this blog

रामकथा

'सीतायाः चरितं महत्'

आत्मा की समृद्धि का पर्व