अमृत काल का स्वर्णिम अध्याय


 अमृत काल का स्वर्णिम अध्याय


         @मानव

उत्तरं यत् समुद्रस्य 

हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्षं तद् भारतं नाम

भारती यत्र संततिः।।

      (विष्णुपुराण 2.3.1)

भारत के अस्तित्व का

यह जयघोष

भारत की नित्यनूतन 

चिरपुरातन संस्कृति

और परंपरा के वर्णन को 

उद्धरित

व लोक में व्याप्त करता है।


स्वाधीनता का अमृत महोत्सव

भारत की अस्मिता

और गौरवशाली इतिहास की

पुनर्स्थापना का उत्सव बन गया है,

जिसने पूरे देश में 

सकारात्मक ऊर्जा का 

संचार किया है।

यह एहसास दिलाने का उत्सव है

कि भारत नूतन देश नहीं है 

बल्कि हजारों वर्ष पुरानी 

सभ्यता और संस्कृति वाला राष्ट्र है।


भारत को प्रगति के पथ पर 

ले जाने वाले विचारों को 

आत्मसात करना,

भारत को पूर्ण विकसित 

देश बनाने के लिए 

आवश्यक समाधान के विषय में

चिंतन करना,

भारत की प्रगति के लिए 

कार्य योजना बनाकर

अमल में लाना

इसका उद्देश्य था।


जनसंख्या,

जो कुछ समय पहले तक 

समस्या के रूप में देखी जाती थी,

उसे एक बड़ी शक्ति के रूप में

देखे जाने का उपक्रम 

अमृत महोत्सव की उपलब्धि है।

यह भारत का

अपनी अस्मिता के लिए 

वैश्विक जयघोष है;

यह ऐसे युवा रचने का संकल्प है

जो विश्व का नेतृत्व करने वाले

भारत के शिल्पकार बनेंगे।


यह सर्व समावेशी, 

सद्भावनापूर्ण,

संपन्न भारत के

सृजन का स्वप्न है

जो हर भारतवासी के मन में

अपने देश के प्रति 

दायित्वपूर्ण उत्साह का 

निर्माण करता है।


भारत में विश्व बंधुत्व का भाव

सदा सर्वोपरि स्थान पर रहा है।

भारत ने कभी एकांगी, 

स्वार्थपरक दृष्टिकोण से 

विश्व को नहीं देखा।

उसमें प्रेम,दया,करुणा 

और उल्लास सभी का समावेश रहा,

जो महत्वपूर्ण रहा है।

यह भारत को एक ऐसा देश

बनाने वाला अभियान रहा है


जो देवताओं को पुनः

यह कहने के लिए बाध्य कर सके

'गायंति देवाः किल गीतकानि

धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।'


 ~मनोज श्रीवास्तव

Comments

Popular posts from this blog

रामकथा

'सीतायाः चरितं महत्'

आत्मा की समृद्धि का पर्व