मौलिक रामकथा के मानसकार

 मौलिक रामकथा के मानसकार


        @मानव



गोस्वामी तुलसीदास जी ने 

समाज को रामकथामृत देकर

धन्य कर दिया;

राम नाम के प्रति

जिनकी आस्था 

सावन मास के अंधे की तरह थी।


राम की कृपा के प्रति 

तुलसीदास जी की दीनता 

और शरणागति है,

यही उनका चरम पुरुषार्थ है।

कृपा के मूल में

पुरुषार्थ नहीं होता है, 

अपितु पुरुषार्थ के मूल में 

कृपा होती है।

इसलिए मानस

कृपासाध्य ग्रंथ है,

साधन साध्य नहीं। 


तुलसीदास जी की

अपनी मौलिक दृष्टि है।

प्रभु श्रीराम

सांसारिक मर्यादा की अग्नि में

श्रीसीता जी के

लौकिक कलंकों को जलाकर

मूल सीता को प्रकट कर दिया।


माया जल गई 

और त्रिदेवों द्वारा सेवित 

उनकी आराध्या

निर्मल सीता प्रकट हो गईं। 

मानस सत्य प्रधान ग्रंथ न होकर

शील प्रधान है।

सत्य में अपने अहं का 

रक्षण होता है

और शील में

दूसरे के अहं का।


रामचरितमानस में साहित्य,

व्याकरण,

न्याय- द्वैत-अद्वैत 

विशिष्टाद्वैत,

द्वैताद्वैत आदि

सिद्धांतों का प्रतिपादन 

व्यावहारिकता को ध्यान में रखकर

भक्ति रस के अनुपान में 

किया गया है।


गोस्वामी तुलसीदास जी ने 

श्रीरामचरितमानस को 

सुस्पष्ट स्वरूप दिया है, 

कहीं कोई भ्रम

या द्वंद्व नहीं रखा है।

उनके मनोमस्तिष्क में

कहीं भी धर्म,जाति,वर्ग,पंक्ति भेद

लेश मात्र नहीं है।

इसी कारण तुलसीदास जी 

और उनका मानस

मानव मात्र के हृदय सिंहासन पर

विराजमान हो सका।


तुलसी समाज सुधार, आदर्श,

समाज की व्यापकता के प्रति

सदैव सजग हैं,

रामचरितमानस में 

अंधविश्वास तथा चमत्कार को

कोई स्थान नहीं दिया गया है। 

वहाँ केवल कृपा है,

जो किसी अनुबंध के घेरे में नहीं है।


राम सगुण भी हैं

और निर्गुण भी,

दृश्य भी हैं

और द्रष्टा भी।

तुलसीदास जी की व्यापकता

और व्यावहारिकता का 

सर्वोच्च दर्शन

अस विवेक जब देइ विधाता

में यह है

ऐसी विनम्रता और शुचिता 

केवल तुलसीदास जी की 

रामकथा में ही सँभव है।


 ~मनोज श्रीवास्तव

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