रक्षाबंधन के बहाने

 लघुकथा

रक्षाबंधन के बहाने



       @मानव

इस कस्बे में मिली पोस्टिंग के बाद वह मुझे आज दूसरी बार व्यस्त चौराहे के गोलण्डे पर भीड़-भाड़ से निर्लिप्त जनवरी की गुनगुनी धूप सेंकती अपने में खोयी बैठी मिली थी।स्वाभाविकतः ऑफिस खुलने का समय होने के कारण चौराहे की व्यस्तता अधिकतम होते हुए भी वह अपने में रमी थी।


लगभग २४-२५ साल की व्यवस्थित कपड़े और ब्लेजर पहने इस छरहरी महिला को यूँ बैठा देखकर अचम्भा होना स्वाभाविक था।


पहली बार वह मुझे रेलवे स्टेशन की फर्श पर सुबह पाँच बजे ट्रेन पकड़ने के लिए पहुँचने पर प्लेटफॉर्म के फर्श पर दुपट्टा ओढ़कर सोती मिली थी।मेरे सामने ही वह सोकर उठी थी,पास के नल में जाकर मुँह धोया था,बाल को करीने से ठीक किया था।आस-पास के लोगों की नजर उस पर स्वाभाविकत: थी।वह उठकर पास वेंडिंग काउण्टर पर गई थी।वेण्डर ने तत्काल उसे चाय दे दी थी।चाय लेकर वह एक खाली सीट पर सलीके से बैठकर उसे चुस्कियों के साथ पीने लगी थी।उस दिन तो मैंने इसे स्वाभाविक यात्री मानकर तवज्जो नहीं दिया था और गाड़ी आने पर गंतव्य की ओर चला गया था।पर आज उसकी दशा व कुछ-कुछ पढ़ी गई क्षणिक मनोदशा से विचलित सा हो गया था।


मैं अफिस पहुँच चुका था;पर दिमाग में वह महिला अति व्यस्तता के बावजूद धीरे-धीरे रह-रहकर दस्तक दे जा रही थी आखिरकार लंच समय में एक स्थानीय सहकर्मी से मैंने चर्चा छेड़ दी।


अरे सर वह लड़की!वह इस दुनिया की चालाकी,फरेब व धोखे की निशानी है।वह दार्शनिक अंदाज में बोला तो मेरी जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक था।सहकर्मी ने संक्षिप्त रूप में उसकी कहानी कह सुनाई।


किस तरह बिन माँ की इकलौती स्नातक बेटी को सजातीय उच्च शिक्षित घर-वर देखकर मध्यम जमींदार कृषक पिता ने गंगा नहा लिया था।कुछेक माह ही बीते थे उनकी कालरा से मृत्यु हो गई।अन्य चाचा-चाची,ताऊ-ताई व उनके छः बेटों ने इस लड़की को अपनी सगी बहन समान माना।संपत्ति लड़की को स्थानान्तरित हो गई;सभी ने सहयोग दिया।चाची ताई माँ का फर्ज निभाती रहीं और उनके बेटे भाई का।


पर होनी कुछ और चाहती थी।पति व उसका परिवार प्यार का स्वाँग कर लड़की को उलझाए हुए था।लड़की के हाथ आयी,करोड़ों की सम्पत्ति को भविष्य में मुकदमे आदि की पैरवी के नाम पर उसने इसे पूरा का पूरा अपने नाम लिखा लिया। और दो साल के अंदर ही उसे घर से बाहर निकाल दिया ।


लड़की मायके पहुँची।चाचा-ताऊ आदि ने बिरादरी के हस्तक्षेप से बात बनानी चाही।सीधा साधा घराना झगड़ा बचाना चाहता था।अंतत: हार कर सिविल मुकदमा दायर हो गया जो आज भी कच्छप गति से भारतीय न्याय व्यवस्था की कहानी कहता चल रहा है।


पर शुद्ध भारतीय परंपरा के बीच पली बढ़ी लड़की जिस व्यक्ति को अपना सर्वस्व मान चुकी थी उसके धोखे ने उसके दिमाग की कीलें हिला दीं और वह विक्षिप्त हो गई।


विक्षिप्तता की दशा में वह स्वयं को चाचा-ताऊ के परिवार पर बोझ मानने लगती है और घर से निकल पड़ती है।पर दु:ख की मारी अपनी बेटी - बहन को समझाने की कोशिश परिजन तो करते हैं; दवा का भी सहारा लिए हुए हैं। पर स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में नहीं आ रही।


इस दायित्व को पूरा परिवार निभा रहा है। परिवार के दो-तीन लड़के/भाई व गाँव के उनके साथी आस-पास मण्डराते हैं।उसके दवा से इंकार करने की आदत के बावजूद समय पर उसे दवा मिल जाए इसका वेंडर व दूकानदारों से जुगत भिड़ाकर प्रबन्ध करते हैं। और सुरक्षा के लिए चौबीसों घंटे अपनी नजर में रखते हैं। जब कभी दिमाग स्थिर होता है साथ लेकर घर जाते हैं।ऐसे रिश्ते के भाई व गाँव के मुँहबोले भाई रोज ही रक्षाबंधन का संकल्प दोहरा व निभा रहे हैं।


✍️मनोज श्रीवास्तव

(स्वानुभूत, स्वलिखित, मौलिक)

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