योगेश्वर श्रीकृष्ण

 योगेश्वर श्रीकृष्ण


       @मानव


योगेश्वर श्रीकृष्ण

प्रबंधन,

नवनिर्माणकर्ता

और मार्गदर्शन करने वाले 

महामानव हैं।


वे अद्वितीय हैं

क्योंकि मानवता की रक्षा

और धर्म-स्थापना में 

उनके द्वारा किए गए कार्य 

उनके पहले द्वापर युग में 

किसी ने नहीं किया था।


वे ऐसे मनीषी हैं

जिनका जीवन

मानवीय सद्गुणों

और धर्म की रक्षा

व स्थापना कर

अधर्म और अधर्मियों का 

नाश करने से जुड़ा है।


वे सर्वहित करने वाले हैं,

वे परमहितैषी महाराज हैं,

वे सब को साथ लेकर चलते हैं

और विपरीत बुद्धि वालों को

अपनी नीति और स्वभाव से

अपने में समाहित कर लेते हैं।


अध्यात्म उनका निराला है;

वे उनका भी उद्धार करते हैं 

जो सदा असुर नीति के पोषक रहे;

क्योंकि उनका कार्य

धर्म की रक्षा

और अधर्म का नाश करना था।


गीता में वे कहते हैं -

जो व्यक्ति डर से रहित, 

दिल से सदा साफ, 

तत्वज्ञान के लिए जिज्ञासु, 

योग-ध्यान में समता से युक्त,

सात्विकता के गुणों को 

धारण करता है;

अपने बड़ों की पूजा करता है,

वह सच्चे मायने में

धर्म को जानता है। 


वे कहते हैं,

जीवन में धर्म

उतना ही जरूरी है

जितना कि धन-दौलत;

शुभकामना करते रहना 

उतना ही जरूरी है

जितनी आंनद के लिए 

परमात्मा की भक्ति।


गीता में भगवान कहते हैं, 

हमें अपनी अच्छाइयों

और बुराइयों

दोनों पर नजर रखनी चाहिए;

अच्छाई पीपल वृक्ष की तरह हैं 

जो खुद को शीतल रखता है

और राहगीर को भी।


वेद,शास्त्र और आगम निगम 

सभी के वे ज्ञाता हैं;

इसलिए उनके जीवन में 

किसी भी मोड़ पर 

फिसलन नहीं है।


जो वेद शास्त्र में आस्था रखता है,

स्वधर्म का पालन करता है 

दुख सहने

और सुख के लिए

अधर्म का रास्ता नहीं अपनाता,

उसका इहलोक भी 

सुखमय होता है

और परलोक भी।


जिससे खुद का हित हो 

और सभी प्राणियों का भी 

ऐसा कार्य,

गुण व स्वभाव वाला व्यक्ति पूज्य है। 


श्रीकृष्ण ने अपने जीवन से 

इस बात को साबित किया 

मनुष्य के कर्तव्य (धर्म),

कार्य,

स्वभाव,

शक्ति,

सद्गुण

विचार, 

सृजन और प्रबंधन

सभी के आदर्श

और नीति-निर्माता 

स्वयं श्रीकृष्ण हैं।

उनका गुण,कर्म,स्वभाव,

शक्ति,मूल्य,अध्यात्म

और धर्म स्थापना की धारा 

दुनिया भर में स्वीकार है।


सद्गुण

वर्ण,कुल,परिवार,

समाज और धन-दौलत को 

सुशोभित करते हैं।

वहीं सद्गुणहीन

अच्छे कुल परिवार

और समाज में पैदा होकर भी

पतन को प्राप्त हो जाता है। 


श्रीकृष्ण ने पतितों को 

नीति द्वारा समझाया

और धर्म कर्तव्य के रास्ते पर

चलने के लिए प्रेरणा

और साहस बंधाया।


वे गीता के जरिए अर्जुन को

महज धर्म की स्थापना के लिए

स्वपरम कर्तव्य पालन का 

उपदेश व संदेश ही नहीं देते

बल्कि मोह,भ्रम,द्वंद

और मन की अस्थिरता से 

पैदा होने वाली समस्याओं, 

संकटों और दुर्बलताओं को 

दूर करने के लिए

शुभ संकल्प

व कर्म वीरता को अपनाने के लिए

प्रेरित भी करते हैं।


उन्होंने संसार के हर व्यक्ति को

सच्चे मायने में

मानव बनने के लिए

जरूरी मूल्यों को 

आत्मसात करने पर बल दिया।

वे हर व्यक्ति के जीवन को 

उत्तम मार्ग का अनुगामी 

बनाने की बात करते हैं।


दुर्गुणी का स्वभाव

पानी-स्वभाव सम

सदा नीचे की ओर ही

गमन की प्रवृत्ति वाला है

और सद्गुणी व्यक्ति का स्वभाव

अग्नि की तरह होता है

जो महज अपने स्वार्थ

और स्वाद में बने रहते हैं

वे न तो अपना हित कर पाते हैं

और न तो दूसरों का। 


श्रीकृष्ण कहते हैं,

मन को निर्मल बनाना 

उतना ही जरूरी है

जितना कि सहज

साथ में प्राणी मात्र के

हित की कामना करना 

मनुष्य का पावन धर्म

और कर्म है।


उन्होंने सत्य,शुभ,त्यागी,

अपरिग्रही,मैत्री स्वभाव वाले

पाण्डव का ही साथ

महाभारत में दिया;

वे उन्हें प्रेरणा और धर्म की 

शक्ति भी देते रहे।


श्रीकृष्ण उपदेश करते हैं 

कि इंसान होने के बावजूद 

हम अपनी बुद्धि, विवेक, 

शक्ति और क्षमता के संबंध में

कभी निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं करते,

फलतः न तो धर्म-लब्धि होती है

और न ही अर्थ और मोक्ष की ही।


जहाँ धर्म और धैर्य 

साथ-साथ होते हैं,

उनकी सफलता

सुनिश्चित होती ही है;

इसलिए पाण्डव

युद्ध में ही विजयी नहीं हुए 

बल्कि स्वर्ग के राज्य में भी 

विजय पताका फहराई। 


दीनहीनता की वजह 

किस्मत नहीं है

बल्कि अपने वे कर्म हैं

जो नकारात्मक,

अशुभ संकल्प

और नियम-मर्यादा से

दूर होकर किए जाते हैं। 


उनका योग अंदर व बाहर 

दोनों से पूर्ण व सकारात्मक है;

उनमें भगवत्ता की सोलह कलाएं हैं

जो इहलोक और परलोक 

दोनों को सफल करती हैं। 


श्रीकृष्ण स्वभाव में सहज, 

शांत और पवित्र है।

श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को

सौ बार क्षमाकर

समाज को संदेश दिया

कि क्षमा करना

जहाँ एक खासियत है

वहीं पर सीमा से बाहर जाकर

क्षमा करना कायरता भी है।


  ✍️मनोज श्रीवास्तव

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