पितरों को नमन!
पितरों को नमन!
@मानव
हमारे इस संसार में
जन्म लेने का माध्यम
पिता और पूर्वज ही हैं;
वे थे,
इसलिए हम हैं;
वे न होते,
तो हम न होते;
उन्होंने पालन पोषण दिया;
स्वयं की महत्वाकांक्षाएं छोड़ी;
हमारी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए
उन्होंने तमाम कर्म किए;
वे सदा सर्वदा नमन योग्य हैं।
श्रद्धा भाव है और श्राद्ध कर्म।
श्रद्धा मन का प्रसाद है।
पतंजलि ने श्रद्धा को
चित्त की स्थिरता
या अक्षोभ से जोड़ा है।
श्रद्धा की अभिव्यक्ति श्राद्ध है।
पूर्वजों पितरों के प्रति
श्रद्धा की स्थाई भावना
हमारी विरासत है।
हम पूर्वजों के प्रति
प्रतिपल श्रद्धालु रहते हैं,
लोकमान्यता है कि
पितृपक्ष में पूर्वज पितर
आकाश लोक आदि से
उतरकर धरती पर आते हैं।
वर्ष भर की व्यस्तता के मध्य
इन पक्ष दिवसों में
पितरों के प्रति गहन श्रद्धा का
प्रसाद सुख निराला है।
वैदिक निरूक्त में
श्रत और श्रद्धा को
सत्य बताया गया है;
पितरों का आदर
प्रत्यक्ष मानवीय गुण है।
भारतीय मनीषियों ने
श्रद्धा भाव को
श्राद्ध कर्म बनाया;
पिता,पितामह
और प्रपितामह के लिए
अन्न भोजन जल आदि
अर्पण तर्पण का
कर्मकाण्ड बनाया;
श्रद्धा है कि अर्पित भोजन
पितरों को मिलता है;
वे प्रसन्न होते हैं
और सन्तति को
सभी सुख साधन देते हैं।
कर्मकाण्ड निरूद्देश्य नहीं होते;
सभ्य समाज में
पितरों का आदर होता ही है,
होना भी चाहिए।
श्राद्धकर्म को लेकर
चलने वाली बहस पुरानी है;
श्राद्ध का भोजन
पुरोहित या अग्नि को
अर्पित होने पर
मृत पूर्वजों द्वारा
कैसे खाया जाता है
जो मृत्यु के बाद
अन्य शरीर धारण कर चुके हैं!
इस प्रश्न का भी उत्तर है-
पिता,पितामह और प्रपितामह को
वैदिक मंत्रों में क्रमशः
वसु,रूद्र और आदित्य देव के
समान माना गया है।
वे नाम परिचय सहित
उच्चरित मंत्रों आहुतियों को
पितरों के पास ले जाते हैं।
यदि पितर सत्कर्म के कारण
देवता हो गए हैं
तो वह भोजन आनंद रूप में
उनके पास पहुँचता है,
यदि पशु हो गए हैं
तो भोजन घास हो जाता है
यदि सर्प जैसे रेंगने वाली योनि में है
तो वायु आदि के रूप में मिलता है।
{मत्स्य पुराण (19.2)}
वस्तुतः श्रद्धा कर्म परम्परा पुरानी है
और पुनर्जन्म मान्यता भी;
ऋग्वेद में भी पुनर्जन्म का उल्लेख है;
संतानों द्वारा प्रेषित भोजन
पितरों तक पहुँचने के
सिद्धांत का मूल श्रद्धा है;
पुनर्जन्म सिद्धांत के कारण
आत्मा के नए शरीर धारण की बात आई।
आर्य समाज श्राद्धकर्म के पक्ष में नहीं है;
उसने वैदिक दर्शन को प्रतिष्ठा दी;
उसने ऋग्वैदिक पितरों को
मृत नहीं माना।
उन्हें जीवित वानप्रस्थी बताया।
शतपथ ब्राह्मण में मंत्र है
यह भोजन पिता जी आपके लिए है।
याज्ञवल्क्य की व्यवस्था है
वसु, रूद्र और आदित्य
हमारे पितर हैं;
वे श्राद्ध के देवता हैं।
पितरों का ध्यान
वसु,रूद्र और आदित्य के
रूप में ही करना चाहिए।
वृहदारण्यक उपनिषद् में
याज्ञवल्क्य ने शाकल्य को
रूद्र और वसु का अर्थ समझाया है;
यहाँ पृथ्वी,आकाश आदि वसु हैं,
प्राण, इन्द्रियाँ मन आदि रूद्र हैं;
आदित्य प्रकाश हैं;
यहाँ प्रकृति की शक्तियों के प्रति
पितर श्रद्धा है।
यम (नियम) व्यवस्था को
कोई बदल नहीं सकता।
जिस मार्ग से हमारे पूर्वज गये हैं,
उसी मार्ग से सभी मनुष्य जायेंगे;
अन्ततः सबको यम के पास
जाना ही पड़ता है;
मृत पिता से कहते हैं
जिस पुरातन मार्ग से
पूर्वज पितर गये हैं,
आप भी उसी से गमन करें;
(ऋग्वेद-दसवें मण्डल सूक्त 14)
यज्ञ कर्म की चर्चा में
यम से प्रार्थना है
कि आप अंगिरा आदि पितरजनों सहित
हमारे यज्ञ में आएं।
पितरों को नमस्कार निवेदन है,
जो पितामह आदि पितर पूर्वज
या उसके बाद मृत्यु को प्राप्त पितर हैं,
या जो फिर से उत्पन्न हो गए हैं;
उन सबको नमस्कार है -
इदं पितृभ्यो नमः
अस्त्वद्य ये पूर्वासो या
उपरास ईयुः।
फिर कहते हैं, हे पितरों !
हमारे आवाहन पर आप आएं।
यज्ञशाला में दक्षिण की ओर
घुटनों के बल पर
पृथ्वी पर कुश में बैठें;
(ऋग्वेद के दसवें मण्डल सूक्त १५)
पूर्वजों पितरों का सम्मान
और मृत होने के बावजूद
उन्हें स्मरण करना आनंददायी है।
विवाह आदि मंगल उत्सवों में
पितर आवाहन के
लोक गीत गायन होते हैं।
जहाँ मृत पितरों को निमंत्रण है
कि आप सब इस विवाह में आओ,
बरात चलो,
विवाह में आशीष दो।
शास्त्र पुराना हो या लोक;
यहाँ लोक और शास्त्र एक हो गए हैं।
मृत पितरों को जीवंत जानना
स्मरण करना
आह्लादकारी है।
कर्मकाण्ड की अपनी उपयोगिता है।
कर्मकाण्ड में भी रमते हुए
सत्य की जिज्ञासा संभव है।
मृत पितर मृत ही हैं।
भारतीय चिन्तन में
सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व भी है;
सूक्ष्म शरीर पर भी प्रश्न उठाए हैं।
भोजन अर्पण शुद्ध श्रद्धा है;
उन्हें मिलता है कि नहीं
ऐसे प्रश्न श्रद्धा के सामने बौने हैं।
हम पूर्वजों की निन्दा में क्रोध करते हैं;
श्राद्ध श्रद्धा की ही अभिव्यक्ति है;
श्रद्धा अंधविश्वास नहीं है;
श्रद्धालु विपरीत परिस्थितियों में भी
धैर्य नहीं खोते।
ऋग्वेद में श्रद्धा को
देवता कहा गया है;
वरिष्ठजनों के प्रति आदरभाव
मजबूत सामाजिक संगठन की
आधारशिला है;
वरिष्ठ और पूर्वज हमसे पहले हैं;
उनके अनुभव प्रगाढ़ हैं;
माथापच्ची बेकार है कि
वे भोजन या सम्मान चाहते हैं
कि नहीं चाहते।
मूल बात यही है
कि हम उन्हें सम्मान
और श्रद्धा भाव देकर
स्वयं का आत्मबल बढ़ा रहे हैं
और सामाजिक कर्तव्य का
निर्वहन करते हैं।
पीछे काफी लम्बे समय से
वरिष्ठों का सम्मान घटा है;
मृत माता पिता के प्रति
श्रद्धा दूर की बात है,
जीवित माता पिता भी
फफक रहे हैं;
हमारे पूर्वजों ने ही ऐसे सुंदर
कर्मकाण्ड गढ़े हैं;
इनकी उपयोगिता है;
कर्मकाण्ड में स्वयं के भीतर
पूर्वजों के प्रवाह का
पुन:सृजन संभव है।
अग्रजो, मार्गदर्शक पूर्वजों
और मंत्रद्रष्टा पितरों को
नमस्कार करते
मन नहीं अघाता।
ऋग्वेद के ऋषि ने गाया है -
इदं नमः ऋषिभ्यः
पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृभ्यः ।
ऋषियों, पूर्वजों,
पूर्व महानुभावों
व मार्गदर्शकों को
नमस्कार।
✒️मनोज श्रीवास्तव
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