माँ की उपासना
माँ की उपासना
@मानव
देवी उपासना का
उल्लासधर्मा उत्सव
प्रकृति की आराधना है;
प्रकृति माँ है,
हम सब इसी के अंश हैं,
इसी में पलते हैं।
प्रकृति गर्भ से
असंख्य जीव आ चुके,
प्रतिपल आ रहे हैं,
सतत अविरल;
बार-बार होता है ऐसा सृजन,
निष्कलुष,अनासक्त, लोभ मुक्त।
जीवन अद्वितीय है;
माँ का ही प्रसाद है;
प्रकृति सृजनरत है;
यह संभवतः कोई गीत रच रही है-
अनंतकाल से;
अपूर्ण गीत को फिर-फिर
संशोधित करती है,
छन्दबद्ध करती है,
लय देती है।
प्रकृति लालित्य रस से भरी-पूरी है,
सृजन रहस्यपूर्ण है
यह जीर्ण शीर्ण को
निरस्त करती है बार-बार,
फिर नूतन प्रवाह
और बार-बार सृजन।
प्रकृति माता है।
हम सबको सींचती है प्रतिपल;
वनस्पतियाँ आकर्षित करती हैं;
वे हमारी प्राण ऊर्जा पूरक हैं;
तुच्छ कीट भी
विविध परिधान में घूमते हैं।
प्रकृति दशों दिशाओं से
अनुग्रह की वर्षा करती है,
हमारा अनुगृहीत भाव
स्वाभाविक है,
यहाँ समूची प्रकृति के प्रति
धन्यवाद भाव है,
वह हमारी माता है;
दिव्यता के कारण देवी है;
जननी होने के कारण माता है;
यह जीवन प्रकृति का ही उपहार है।
प्रकृति का पोषण,संवर्द्धन
माँ की ही सेवा है ।
व्रत आदि आस्था के विषय हैं।
पर मुख्य बात यही है -
"प्रकृति में माँ के दर्शन की अनुभूति।"
जो सर्वभूतेष
मातृरूपेण प्रतीति है।
प्रकृति स्वयंभू है,
सदा से है,
सभी रूप प्रकृति के ही हैं,
प्रकृति को माँ देखते ही
हमारी जीवनदृष्टि बदल जाती है;
हम अपनी सुविधा के लिए
उन्हें अनेक नाम देते हैं;
दुर्गा,काली,सरस्वती,
शाकम्भरी,महामेधा, कल्याणी,
वैष्णवी,पार्वती इत्यादि।
आंतरिक बोध में भी
सहायक हैं-नाम स्मरण,
मूलभाव है-माँ;
या देवी सर्वभूतेषु
मातृरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमो नमः ।
प्रकृति में दिव्य माँ देखना
अंधविश्वास का प्रश्न नहीं;
प्रकृति अखण्ड इकाई है;
जिसके नामकरण से ही
रूप का ध्यान आता है;
रूप की सीमा है;
प्रकृति अनंत है;
असीम और अव्याख्येय।
इसे माँ कहने में आह्लाद है।
सम्प्रति भारत का मन भावप्रवण है।
भावप्रवण चित्त में ही
शिवसंकल्प उगते हैं।
सुन्दर काव्य या सुन्दर ऊक्त-सूक्त,
कला सहित सारे सृजन
उसी भावबोध की उपज हैं।
प्रकृति प्रत्यक्ष भाव बोध में माता है;
माता देवी है;
देवी माता है;
देवी उपासना माँ और संतान के
अविभाज्य और अनिर्वचनीय
प्रेम का चरम है;
यही दुर्गा सप्तशती की अनुभूति है।
✍️मनोज श्रीवास्तव
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