महारास का आध्यात्मिक स्वरूप

 महारास का आध्यात्मिक स्वरूप



       @मानव

जो आस्वाद और आस्वाद्यमान

दोनों धर्म विशिष्ट रस से युक्त हो,

वह रास कहलाता है।


गोपियाँ वेद ऋचाएं हैं

और श्रीकृष्ण अक्षर ब्रह्म वेद पुरुष;

शब्द और अर्थ

अथवा ऋषियों और वेद के 

नित्य संबंध की भाँति 

गोपियों और कृष्ण का 

नित्य संबंध और विहार ही 

रासलीला है। 


सांख्यवादियों के अनुसार, 

रासलीला प्रकृति के साथ 

पुरुष का विलास है। 

गोपियाँ प्राकृत स्वरूप में 

अंतःकरण की वृत्तियाँ हैं, 

भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं। 

प्रकृति के अनेक विलास

देख लेने के बाद

अपने स्वरूप में स्थित होना

रासलीला का रहस्य है।


योगशास्त्र में अनाहत नाद 

श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि है। 

अनेक नाड़ियां गोपियाँ हैं। 

कुल कुंडलिनी श्रीराधिका रानी हैं।

सहस्र दल कमल ही

सुरम्य वृंदावन है,

जहाँ आत्मा-परमात्मा का 

आनंदमय सम्मिलन रासलीला है।


आत्मशक्ति को प्रधानता 

देने वाले विद्वान

पूर्णानंद में आत्मा के लीन होने को

रासलीला मानते हैं।

गो शब्द का अर्थ इंद्रिय है, 

जिस प्रकार इंद्रियाँ

या उनकी वृत्तियाँ

एक मन एक प्राण होकर 

अंतरात्मा में विलीन होने की

तैयारी करती हैं,

उसी प्रकार वंशीध्वनि से 

गोपियाँ कृष्ण की ओर

गति करती हैं।

किंतु अहमन्यता के

स्फुरण के कारण

पूर्ण मग्नता की दशा

प्राप्त नहीं होती।

कृष्ण रूपी आत्मज्योति 

प्रकाशित होते ही

अहंकार का आवरण

नष्ट हो जाता है। 

वियोगानुभूति से

संयोग के लिए

तीव्र प्रेरणा होती है,

पुन: दर्शन होता है

और उनके साथ महारास होता है।

यही है आत्मा का

पूर्णानंद में विलीन होना।


भगवान की रासलीला 

आत्माराम की लीला है। 

अपने साथ अपनी ही क्रीड़ा है,

भगवान बिंब रूप होते हुए 

अपने ही प्रतिबिंब

गोपियों के साथ रमण करते हैं।


रासलीला ब्रह्मानुभव का 

रहस्य प्रकट करती है, 

परमात्मा के साथ अनेक संबंध बाँधकर

जीवात्मा भगवत्स्वरूप प्राप्ति की

चेष्टा करता है।

यह संबंध काम,क्रोध, 

भय,स्नेह,एकता

और भक्ति के द्वारा

सिद्ध होता है।

अतः रासलीला जीवात्मा का

परमात्मा के साथ संबंध 

स्थापित करने की व्याख्या है।


उपनिषदों में भगवान रस माने गए हैं।

रस को प्राप्त करने पर ही 

परमानंद की प्राप्ति होती है।

यही रम रूप ब्रह्म जीव 

और जगत का केंद्रबिंदु है, 

जिसकी परिधि ब्रह्मांड है। 

'रसो वै सः' का संकेत 

अनुभूतिपरक है।

मन की उन्मुक्तावस्था रहती है।

नित्य रस का आनंद

नित्य आत्मा ही ले सकती है।

यही नित्य वृंदावन की 

नित्य रासलीला हैं।


 ✍️मनोज श्रीवास्तव

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