पितृपक्ष की सार्थकता
पितृपक्ष की सार्थकता
@मानव
'मृत्योर्मा अमृतं गमय'
यानी मुझे असत्य से
सत्य की ओर ले चलो
इसमें सभी के अमरत्व की
कामना की गई है;
जो मानता है कि
किसी की मृत्यु नहीं होती,
केवल रूप बदलता है;
यही गीता का सार है
और कर्तव्य पथ पर
आरूढ़ होने का मंत्र भी!
वस्तुतःभारतीय संस्कृति
मूलतः जीवनदायिनी संस्कृति है;
तभी तो हमारे पूर्वज भी
स्थूल शरीर छोड़कर
सूक्ष्म शरीर से
सदा जीवित रहते हैं;
उन्हीं के लिए पितृपक्ष में
श्राद्धकर्म का विधान है।
जगत को कर्मप्रधान कहा जाता है,
परंतु वास्तव में यह भावप्रधान है;
अंतर्मन में कार्य करने का भाव
पहले जागृत होता है;
फिर वह कार्य रूप में
परिणत होता है;
अतः सभी कर्म भावप्रसूत हैं;
इसीलिए कर्म और भाव में
कार्य-कारण संबंध रहता है;
जैसा भाव वैसा कर्म ।
‘मातृदेवो भव',
'पितृदेवो भव'
'आचार्य देवो भव'
यह कहने का तात्पर्य यही है
कि माता, पिता और गुरु
साक्षात देव स्वरूप हैं;
जिनकी मृत्यु कभी नहीं होती।
ये न रहकर भी
सदा हमारे साथ रहते हैं,
मार्गदर्शन करते हैं
और सूक्ष्म रूप से
हमारे द्वारा समर्पित
भोगों को भी ग्रहण करते हैं।
जीवन में भावनाओं का संबल
हमें अधिक शक्ति प्रदान करता है।
श्राद्ध कर्म भी
भावनाओं का संबल है;
यही इसके विधान का मर्म है।
श्राद्ध का केंद्रीय भाव
लोककल्याण में निहित है;
पितरों के नाम पर
भूखे को भोजन,
निर्धनों को धन
एवं अन्यान्य जीवों को
दान का विधान
भारतीय संस्कृति की
परार्थ भावना पर आधारित है;
इसी माध्यम से
लोगों के अंतःकरण में
त्याग एवं परोपकार की
भावनाओं का उदय होता है;
ऐसे उदात्त मंगल भावों वाली
भारतीय संस्कृति को नमन है।
✍️मनोज श्रीवास्तव
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