प्रेम और विश्वास का पर्व होली

 प्रेम और विश्वास का पर्व होली



       @मानव

वसंत पँचमी से उठते

फागुन का उत्कर्ष है होली पर्व;

जो आने से पहले ही

चारों ओर आशा और प्रेम का

सँचार कर जाता है और

बूढ़ा भी बालक बन जाता है,

तभी तो उम्र के बन्धन तोड़कर

रँगने-रङ्ग जाने का उत्सव है होली।


लोगों के हृदय में विराजमान 

श्रीराम आराध्य भी हैं,

इष्ट भी

और लोकनायक भी;

श्रीराम के जीवन चरित्र का 

लोक मानस पर

ऐसा अमिट प्रभाव है

कि मर्यादा पुरुषोत्तम भी 

फागुन के गीतों में

रङ्ग खेलते हैं

तो कभी झूमकर नृत्य करते दिखते हैं।


कान्हा की होली तो

यहाँ के लोकनृत्य,नाटक, 

गीत-संगीत और चित्रकला में

भावपूर्ण रूप में उपस्थित हैं, 

तभी तो ब्रज की होरी 

कवियों की कल्पना को 

असीमित विस्तार देती आई है।


होली लोक का सबसे बड़ा 

सामाजिक पर्व है,

जिसमें कलाओं के रंग भी हैं, 

प्रेम,स्नेह और सम्मान के 

गुलाल-अबीर भी;

होली के इस चतुर्दिक उल्लास में

'यो अहम् सो असौ

यो असौ सोहम्' का

सनातन भाव साकार हो उठता है।

(जो मैं हूं,वह वो है

और जो वो है वह मैं हूँ।)

हमने एक-दूसरे को रंग दिया है;

उसके रंग में मैं भीगा हूँ

और मेरे रंग में वह;

जिसमें न मनमुटाव की चिंता है

और न विषाद की;

बस है तो रंग-तरंग,

प्रेम और मीठी छेड़छाड़;

अतिथि सत्कार का

परम भाव लाती है होली,

जहाँ सामाजिक समरसता का

समभाव सबको एक कर देता है।


यदि वसंत प्रेम के 

आदान-प्रदान का मौसम है 

हो होली प्रेम के विश्वास को 

अटल रखने का पर्व है

जो रंगने वाला

प्रेम के विश्वास को

अँजुरी में भरकर रंगता है

और यह रंगना-रंग जाना

प्रेम का शाश्वत चलना है। 


इसीलिए होली का समापन 

एक अकुलाहट की पूर्णता है, 

खुमारी की विश्रांति है;

बस शालीनता और मर्यादा का

अनुपालन आवश्यक है।


 ✒️मनोज श्रीवास्तव

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