शिवाजी राज्यारोहण :स्वाभिमान का अभिषेक
ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी
शालिवाहन शक संवत १५९६
(छह जून,1674 ई.)
शिवाजी राज्यारोहण
:स्वाभिमान का अभिषेक
@मानव
छत्रपति शिवाजी का नाम सुनते ही
जहाँ वीरों की बाँहें
फड़कने लगती थीं
तो वहीं दुश्मनों के खेमे में
भगदड़ मच जाती थी;
शिवाजी न सिर्फ जनतंत्र को
स्थापित करने में सफल हुए,
बल्कि उन्होंने यह भी सिद्ध किया
कि बुद्धि-कौशल,साहस
व सांस्कृतिक उन्नयन के बलबूते
कोई भी संगठन
खड़ा किया जा सकता है।
रायगढ़ दुर्ग में
शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक
हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की
सिंहगर्जना थी,
जो आज भी पूरे देश में गूँजती है।
शिवाजी का राज्याभिषेक
भारतीय संस्कृति के इतिहास की
अनमोल घटना है
जो वेदकालीन राज्याभिषेक की
याद दिलाता है;
और जिसने भारत के जन-मन को
बहुत ज्यादा प्रभावित किया।
यह उस दौर का
ऐसा महान सांस्कृतिक
और राजनीतिक महोत्सव था
जिसका उल्लास
आज तक बना हुआ है।
शिवाजी ने जिस तरह
स्वराज्य का संकल्प लेकर
मुगलों से लोहा लिया,
हिंदुत्व-मूल्यों की रक्षा के लिए
सदा संघर्ष करते रहे,
उसी संकल्प से
राज्यारोहण भी किया।
राज्याभिषेक
शिवाजी की ही बनाई हुई
महत्वाकांक्षी योजना थी,
ताकि वे पूरी ताकत के साथ
बिना किसी विघ्न बाधा के
हिंदवी स्वराज्य का संकल्प
पूर्ण कर सकें।
इस राज्याभिषेक को
राज्यारोहण कहा गया;
हिंदू पद-पादशाही का
स्थापना दिवस भी कहा गया
और हिंदवी स्वराज्य का
श्रीगणेश भी;
यह दिवस आजकल
राष्ट्र के स्वाभिमान की
सिंह-गर्जना के उत्सव के रूप में
मनाया जाता है।
शिवाजी महाराज
जनता द्वारा चुने गए थे
पर उनकी जाति पर प्रश्न लगाते हुए
रूढ़िवादी ब्राह्मण
राज्याभिषेक के लिए
असहमत थे;
ऐसे में काशी के वेदज्ञ पंडित
राष्ट्रवादी विचारधारा वाले
उद्भट विद्वान
उदात्त ब्राह्मण गङ्ग भट्ट ने
परतंत्रता वाली मानसिकता की
अभेद्य दीवार गिरने वाले
शिवाजी के राज्यारोहण को
माँ जीजाबाई की उपस्थिति में
शुद्धोदक स्नान,
पञ्चामृत स्नान,
यज्ञोपवीत संस्कार,
तुलादान;
वस्त्राभूषण धारण आदि के साथ
गौरव के क्षण उपस्थित कर
राजसूय के माध्यम से
सामाजिक मान्यता दिलाई।
समस्त राज्याभिषेक
यज्ञ नामक संस्था में ही होते थे
और उसकी विधि
बहुत सरल नहीं थी,
राजा को संकल्प लेने होते थे
और अग्नि को साक्षी मानकर
जनता को वचन भी देने पड़ते थे।
राज्याभिषेक नायक के
कठिनतम संघर्ष की
अंतिम और सुखद परिणति के
रूप में देखे गए।
राज्याभिषेकों ने
केवल युग ही नहीं बदले,
उन मूल्यों को भी
उन्नत शिखर दिया,
जो बाद के राजघरानों में
आदर्श की तरह जाने गए।
राज्यारोहण
स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव थी,
सनातन स्वाभिमान का
पदारोहण था,
हमारे स्वाभिमान का
राज्याभिषेक था
जो मील का पत्थर बना।
अपनी भवानी तलवार को
धर्म और नीति का आदेश पर ही
प्रयोग के संकल्प का
उन्होंने आजीवन निर्वहन किया।
शिवाजी के युद्धशास्त्र
व नीतिशास्त्र के सूत्र से ही
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की
बुनावट हुई।
स्वतंत्रता को
जन्मसिद्ध अधिकार
मानने की घोषणा
लोकमान्य तिलक द्वारा
शिवाजी की भाषा का
पुनरोच्चार था।
वे संगठन के दृढ़ विश्वासी थे;
राज्याभिषेक के ही दिन नियुक्त
उनके सहयोगी अष्ट प्रधानों ने
शिवाजी के राजनीतिक निश्चयों को
साकार रूप प्रदान किया।
शिवाजी जैसे वीर थे,
वैसे ही धर्मनिष्ठ भी;
समर्थ गुरु रामदास का 'दासबोध'
उनका कवच था;
सनातन पर उनकी आस्था अटूट्ट थी,
पर वे मूलतः धर्म-सहिष्णु थे;
संप्रदायवाद से बहुत ऊपर
वे सहृदय सम्राट थे।
वे उस विचारधारा के विरुद्ध थे,
जो मनुष्य की धार्मिक आस्थाओं पर
प्रहार करती है
और मनुष्य को मनुष्यता के विरुद्ध
खड़ा करती है।
स्त्री की प्रतिष्ठा
और मनुष्य की सामाजिक
व आर्थिक उन्नति के लिए
सहायक नियमों को
उन्होंने प्रतिस्थापित किया।
उनकी नौसेना आज भी
शिवाजी के सामरिक
बुनियादी चिंतन से
जोड़कर देखी जाती है।
वीर शिवाजी का जीवनकाल
बहुत छोटा था,
पर उनके स्थापित आदर्श
संपूर्ण भारत के स्वाभिमान को
जागृत रखने में आज भी
मंत्र जैसी आग रखते हैं;
जिनका अनुपालन आज भी
देश को एकजुट रखने
और स्वराज्य स्थापित करने का
मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
✍️मनोज श्रीवास्तव
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