समुद्र मंथन
समुद्र मंथन
@मानव
हमारा हृदय ही सागर है,
जिसमें अनेकानेक
आध्यात्मिक ज्ञान- विज्ञान
और भक्ति रूपी दिव्यरत्न भरे हैं।
आज भी संसार में
सकारात्मक और नकारात्मक
विचारधारा के लोगों के मध्य
द्वंद्व चलता रहता है।
परमात्मा रूपी अमृत को
प्राप्त करने के लिए
हमें अपने मन रूपी समुद्र को
भक्ति,ज्ञान और वैराग्य रूपी
मथानी से मथना पड़ेगा।
सबसे पहले हमारे मन का
विकार रूपी विष ही
बाहर निकलेगा;
इस विष को
भगवद्भक्ति के अवलंबन से
हमें ग्रहण करना होगा।
मन के मंथन की प्रक्रिया में
पहले अभद्र विचार ही
बाहर निकलेंगे,
यही विचार विषतुल्य हैं।
लोक कल्याण के लिए
यदि हमें तिरस्कार,उपेक्षा,
शारीरिक या मानसिक वेदना स्वरूप
विष पीना पड़ता है,
तो न ही उसे किसी से
अभिव्यक्त करना चाहिए,
ना ही उससे
व्यथित होना चाहिए
अर्थात उसे न ही बाहर निकालें
और ना ही अंदर स्थान दें;
इससे समाज विकृत नहीं होगा
और स्वयं भी वेदना नहीं होगी।
भगवान शिव कल्याण के प्रतीक हैं;
शिवत्व उसे ही प्राप्त होता है,
जो सबकी वेदना दूर करने के लिए
स्वर्य को समर्पित कर देता है;
ऐसे ही जग ताप हरना
भगवान नीलकण्ठ का उद्देश्य है।
समुद्र मंथन से निकले
चौदह रत्नों का
आध्यात्मिक अर्थबोध है-
पाँच कर्मेंद्रियाँ
पाँच ज्ञानेंद्रियाँ
और अंतःकरण की चार वृत्तियाँ
इन समस्त को जब
भगवद्भक्ति के प्रेमरस से
सराबोर कर दिया जाता है,
तब स्वयं ही सारे विकार
दूर हो जाते हैं
और सर्वव्यापक ईश्वर का
प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष
दर्शनरूपी अमृत
सुलभ हो जाता है।
✍️मनोज श्रीवास्तव
आलोक-
पाँच कर्मेंद्रियाँ-
(मुँह,हाथ, पैर, गुदा, लिंग),
पाँच ज्ञानेंद्रियाँ-
(कान,नेत्र,रसना,नासिका,त्वचा)
अंतःकरण की चार वृत्तियाँ-
मन,बुद्धि,चित्त और अहंकार
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