पितृयज्ञ
पितृयज्ञ
@मानव
भारतीय संस्कृति
मानवता की पोषक है
अतः धरती के सभी प्राणियों के
योगक्षेम की चिंता करती है।
इसकी सिद्धि के लिए
मानव को साधक बनाकर
पञ्चयज्ञों का विधान है,
जिसमें चेतन ही नहीं
जड़ पदार्थों का भी
ध्यान रखा गया है।
मनुष्य पर जन्म से ही
पाँच ऋणों का भार है
पञ्चयज्ञ इनसे मुक्ति के
प्रखर साधन हैं।
वेदों ने मातृदेवो भव,
पितृदेवो भव का
उद्घोष किया है;
पितृयज्ञ
पितृऋण से मुक्ति का उपाय है।
इसी भावना की सिद्धि हेतु
भारतीय संस्कृति में
पितृपक्ष का विधान है,
जिसमें श्राद्ध कर्म द्वारा
उनके प्रति सम्मान
व्यक्त किया जाता है।
श्रद्धा भाव प्रमुख होने से
इसे श्राद्ध कहते हैं;
श्रद्धा से समर्पित भोगों को
पूर्वज भाव रूप में
ग्रहण करते हैं।
स्थूल के सामान
सूक्ष्म जगत भी सत्य है,
जिसे भाव जगत भी
कहा जाता है;
माता-पिता एवं गुरु
स्थूल शरीर के न रहने पर भी
सूक्ष्म शरीर से
हमेशा जीवित रहते हैं;
उनका मार्गदर्शन
संबल बनकर
सदा हमारे साथ रहता है।
उनकी संतृप्ति के लिए
तर्पण एवं दान आदि के द्वारा
पितृयज्ञ
संपादित करने का विधान है;
पितृयज्ञ का मूल उद्देश्य
पूर्वजों के प्रति श्रद्धा
तथा सबके अंतर्मन में
दीन-दुखियों के प्रति
दया भाव जागृत करना है।
इसके माध्यम से
सनातन संस्कृति के लोग
अपने मृत पूर्वजों को भी
जलाञ्जलि देते हैं।
पितृपक्ष, वस्तुतः
वर्तमान को अतीत से
जोड़ने वाली एक ऐसी कड़ी है,
जो हमें अपनी जड़ों से भी
जोड़े रखती है।
सबके मंगल का
भाव रखने वाली
ऐसी महनीय भारतीय संस्कृति के
अङ्ग होने का हमें गर्व है।
✍️मनोज श्रीवास्तव
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