श्राद्धकर्म प्रयोजन
श्राद्धकर्म प्रयोजन
@मानव
यमलोक पृथ्वी लोक से
छियासी हजार योजन दूर है
जो चंद्रमा का उर्ध्व भाग है,
यहीं पर पितृ लोक स्थित है।
पितृपक्ष के सोलह दिनों में
चंद्रमा का उर्ध्व भाग
वर्ष के अन्य महीनों की तुलना में
पृथ्वी के अत्यंत निकट आ जाता है
अर्थात् इस समय पितृलोक
पृथ्वी की कक्षा से निकट होने से
पितृगण की ऊर्जा
सीधे पृथ्वीवासियों से
आकर्षित होती है;
इसलिए इसी अवधि में
पूर्वजों को स्मरण करना
समुचित माना जाता है।
(गरुड़ पुराण)
मनुष्य की आत्मा
सूर्य की ऊर्जा से
तथा मन चंद्रमा की ऊर्जा से
निर्मित का विस्तृत स्वरूप है,
जो सूक्ष्म एवं अविनाशी ऊर्जा है;
इस मनस ऊर्जा में
मन के साथ तो बुद्धि
एवं चित्त की ऊर्जा
समाहित रहती है;
जब यह ऊर्जा
संसार में जन्म लेती है,
तो उसके पूर्व कर्म,
जो उसकी चित्त रूपी ऊर्जा में
संचित रहते हैं,
अपने प्रारब्ध को भोगने के लिए
मनस ऊर्जा के अंदर
उसी प्रकार की प्रवृत्ति को
उत्पन्न करते हैं,
और उसी प्रकार की प्रवृत्ति वाले
योनि में जन्म लेने के लिए
प्रेरित करते हैं,
और जब उसकी मृत्यु हो जाती है
तो वही मनस ऊर्जा
अपने पूर्व कर्मों के साथ
वर्तमान जीवन के कर्मों को
चित्त में संचय करके
अपने साथ ले जाती हैं।
हमारे चित्त में
कर्मों के साथ
जीवन एवं परिवार की स्मृतियाँ भी
संचित रहती हैं,
जिनका व्यवहारिक आभास
भले ही मृत व्यक्ति की सूक्ष्म आत्मा
एवं वर्तमान में
उसके जीवित परिवार को न हो
परंतु यह ऊर्जा
एक परिवार की भाँति
सदैव जुड़ी रहती है,
और यदि उसकी संतानें
मृत्यु के पूर्व
एवं मृत्यु के पचात्
समय-समय पर उन्हें
अपेक्षित सम्मान नहीं देती हैं
तो वही पितृ दोष की स्थिति
अर्थात् पूर्वजों की नाराजगी के
श्राप का भाजन बनती है।
संभवतः इसलिए
ज्योतिष शास्त्र में
पिता एवं अग्रजों को
सूर्य,सरकार,राजा आदि की
संज्ञा दी गई है;
हमें अपने पूर्वजों का
सदैव सम्मान
व श्रद्धा सुमन अर्पित करने की आदत
अपने स्वभाव और आचरण में
समाहित करना श्रेयस्कर है।
✍️मनोज श्रीवास्तव
Comments
Post a Comment