गणानां त्वा गणपतिं हवामहे

 गणानां त्वा गणपतिं हवामहे


        @मानव

'गणानां त्वा गणपतिं हवामहे 

प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे'।

   (यजुर्वेद में प्रार्थना)


गणपति ओंकारस्वरूप हैं, 

सूर्य के प्रतिनिधि हैं;

तांबूल के ऊपर

छोटी सी सुपारी रखकर

जब भी किसी ने आह्वान किया

शुभ और लाभ के 

आश्वासनों की पोटली लेकर

गणेश जी उपस्थित हुए।


लोक-जीवन

और लोकाचार से जोड़कर 

मिट्टी के गणपति बनाए गए; 

नाचते हुए गणपति,

बैठे हुए गजवदन,

ढोल बजाते लंबोदर,

लेटे हुए गौरीसुत,

असुर-संहार करते शूर्पकर्ण; 

हम गणपति के साथ

जैसा भक्तिपूर्वक खेल

खेल सकते हैं,

वैसा और किसी

देवी- देवता के साथ नहीं।


गणपति प्रथम पूज्य हैं;

उन्हें पुराणों ने ही

प्रथम पूज्य नहीं बनाया, 

वेदों में भी वे ही

देवताओं में सबसे ऊपर हैं;

वहाँ वे ब्रह्मणस्पति हैं;

ज्ञान के देवता होने के कारण

इंद्र,अग्नि,विष्णु, वरुण

और सोम सहित

सब देवताओं से भी ऊपर 

उनकी प्रतिष्ठा है।


जिस तरह वेद में वर्णित रुद्र 

बाद में शिव हुए,

उसी तरह ब्रह्मणस्पति 

गणपति कहलाए;

'गणानां त्वा गणपतिं हवामहे',

(ऋग्वेद के ब्रह्मणस्पति सूक्त  से)


तन्त्रसाहित्य में गणपति को 

प्रत्यक्ष तत्व

और साक्षात् आत्मा कहकर 

संबोधित किया गया है;

यहाँ उन्हें ब्रह्मा,विष्णु,रुद्र,इंद्र,

अग्नि,वायु,सूर्य,चंद्र, 

ओंकारस्वरूप कहा गया है;

वे ही भूमि,जल,अनल,अनिल

आकाश भी कहलाए हैं।


उपनिषद् में

'एकदंताय विद्महे,

वक्रतुंडाय धीमहि

तन्नो दंती प्रचोदयात्'

इस मंत्र के साथ

गणपति से हमारा परिचय होता है,


वे एकदंत और वक्रतुंड हैं, 

पाश और अंकुश धारक हैं, 

मूषकध्वज हैं,

शूर्पकर्ण हैं,

लंबोदर हैं,

लाल वस्त्र पहने हुए हैं,

लाल चंदन से लिप्त हैं

और लाल पुष्प से पूजित हैं।


'शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमः'

इस मंत्र से गणपति के

शैव होने का

साफ संकेत मिलता है;

यहाँ वैदिक गणपति

और पौराणिक गणपति 

जिस तरह एक हो गए हैं,

वह साँस्कृतिक विरासत

और उसके समृद्ध इतिहास पर

प्रकाश पड़ता है।


गणपति से अच्छा शुभंकर 

कोई अन्य नहीं है;

गणपति का मंगलमूर्ति

और विघ्नहर्ता-स्वरूप

उन सबको सुहाता है

जो कर्म करते हुए

अपने मानस में श्रद्धा

और विश्वास को स्थापित कर

निर्भय हो जाना चाहते हैं।


गणपति हमेशा भविष्य के द्वार

खोलते रहने वाले देवता हैं,

सुदूर भविष्य में भी

उन्हें चलते चले जाना है;

गणपति का अभिराम स्वरूप

सदा हमारे सम्मुख है।


बौद्ध धर्म की महायान शाखा में

विघ्नेश और विरूप

नायक के रूप में

इनकी जो विकराल छवि थी,

उसे हमने कालांतर में 

सुखकर्ता व विघ्नहर्ता के रूप में

ढालकर स्वीकार किया।


गणपति गणनायक हैं,

गणों के स्वामी हैं,

व्रातपति हैं,

समूह के देवता हैं,

इसलिए समूह से

प्यार करते है;

वे व्यक्ति की अपेक्षा

समूह की गतिविधियों में 

रुचि लेने के कारण ही

सच्चे लोकदेवता हैं।


गणपति उस संगठित समाज के

सूत्रधार कहे जाते हैं,

जो जातिभेद,लिंगभेद,वर्गभेद 

और वर्ण व्यवस्था से ऊपर है;

'समान शुभ-समान लाभ' का

विचार फैलाने के कारण

गणपति सबके आराध्य हैं।


देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए

जब समाज के संगठन की 

आवश्यकता महसूस की गई,

तब तिलक जी को

गणेश जी से बड़ा

कोई देवता नहीं मिला।


गणेश जी सबके हैं,

सबकी सहायता करते हैं,

वे सबके साथ चल देते हैं;

वे शुभारंभ के देवता हैं,

तभी तो कार्यारंभ को 

'श्रीगणेश करना' कहते हैं। 


पार्थिव गणेश की स्थापना 

पार्थिव सत्ता को स्वीकारना है;

किंतु यह सत्ता अंतिम नहीं है;

जब तक हम एक सत्ता का 

विसर्जन नहीं करते,

तब तक आगे का सत्य 

दिखाई नहीं देता;

इसीलिए गणेश विसर्जन का 

विचार प्रचलित है।


इस संसार से जो भी लेना है,

वह सब विसर्जित भी करना है,

चाहे वह कितना भी

प्रिय क्यों न हो;

यह सनातन चक्र है,

जो अनवरत चलता है;

आदानं हि विसर्गाय'।

     (कालिदास)


विश्व का स्वभाव संचय में नहीं,

विसर्जन में है;

जो निरंतर विसर्जित होता है,

वही चैतन्य है;

जो एक जगह एकत्र हो जाता है,

वह जड़ बन जाता है।


त्याग पूर्वक उपभोग करो, 

लालच मत करो,

आखिर धन किसका है?

'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा

मा गृधः कस्य स्विद्धनम्'

   (उपनिषद् वाक्य)


चाहे जैसी विषम परिस्थितियाँ हों,

घना अंधेरा हो,

दुख और दुर्भाग्य के

कैसे भी बादल उमड़-घुमड़ रहे हों,

चाहे कैसी नकारात्मक ऊर्जाओं से

हमारा घर भर गया हो, 

निश्छल मन और पवित्र भाव से

गजानन गणपति को बुलाने पर

वे तत्काल आते हैं,

उत्सव में बदल जाता है सब कुछ,

जैसा हम चाहते हैं।


प्रथम पूज्य गणेश का स्मरण ही

मनोरथ पूर्ण करने वाला है

वे हमारी इच्छाओं के

उत्सव पुरुष हैं

जिनके आगमन की

सूचना मात्र ही

शुभ की अश्वस्ति है

उनका अनंत विस्तार 

भविष्य के द्वार खोलता है 

वह चेतन की चेतना जागते हैं।


 ✍️मनोज श्रीवास्तव

Comments

Popular posts from this blog

रामकथा

'सीतायाः चरितं महत्'

आत्मा की समृद्धि का पर्व