संवेदनशीलता :लघुकथा

लघुकथा


संवेदनशीलता

        @मानव

मई माह का अंतिम सप्ताह, प्रचंड गर्मी शाम होते और विकराल पेड़ों का एक पत्ता भी नहीं हिल रहा। बच्चों की छुट्टी के साथ जेठ की लगन का जोर सारे यातायात के साधनों पर भीड़ का दबाव।आजमगढ़ से दिल्ली को लगभग सोलह सौ किमी अप डाउन करने वाली परिवहन निगम की एक्सप्रेस सेवा की यह बस जैसे ही डिपो पर रुकी चढ़ने और उतरने वाली सवारियों में धक्का मुक्की शुरू हो गई। कंडक्टर बार-बार चेतावनी दे रहा था "एक्सप्रेस बस है, चालीस किमी से पहले कोई स्टापेज नहीं है।बीच की सवारी न चढ़े।बीच की कुछ ग्रामीण सवारियाँ व्यवस्था को कोसते हुए उतर गई। फिर भी बस ठसा ठस थी।

बस चली जरा हवा लगी कंडक्टर ने टिकट बनाना शुरू किया। उसने एक दो टिकट ही बनाए थे कि एक हृष्ट-पुष्ट युवक ने बीच के टिकट की माँग कर दी। कंडक्टर भड़क गया। "साहब मैंने पहले ही बता दिया था कि कादीपुर से पहले का कोई टिकट नहीं बनेगा। बस अभी डिपो से बाहर ही आई है। आप दूसरी गाड़ी पकड़ लीजिए।"

भीषण गर्मी में पसीने से चुहचुहाता जवान दुगने आवेग में भड़क गया - "मैं बस से नहीं उतरूँगा और तुम्हे मेरा बरौंसा का ही टिकट बनाना पड़ेगा।"

"साहब मेरी स्टापेज बुक और टिकट मशीन में इसका कोई भी विकल्प नहीं है।कृपया आप उतर जाएं अन्यथा हमें बस रोकनी पड़ेगी।" 

जवान ने स्पष्ट कह दिया कि वह नहीं उतरेगा और बस रास्ते के किनारे लगा कर खड़ी कर दी गयी। भीषण गर्मी में बस में यात्रा कर रहे छोटे छोटे बच्चे चिल्ल पों मचाने लगे। यात्रियों में बेचैनी छा गई। कुछ बीच बचाव की मुद्रा में आ गए।किसी ने कंडक्टर को पैसे लेकर टिकट न बनाने की सलाह दी तो कंडक्टर ने बेइमानी करने से इंकार कर दिया पर समझौते के रूप में स्टापेज के स्टेशन का टिकट बनवाने और बीच में कहीं भी उतर जाने का रास्ता सुझा दिया।जवान इस पर भी तैयार न था।जब एक यात्री ने जवान को उतर जाने की सलाह दी तो वह झल्ला उठा "तुम सिविल वाले सब चोर हो। मैं आर्मी में हूँ और तुम सब एक जवान की कद्र नहीं कर सकते जो सीमा पर तुम्हारी रक्षा करता है। सब हमें ही नसीहत दे रहे हो कंडक्टर को कोई क्यों नहीं समझाता? सब सन्नाटे में हो गये। आखिर अक्खड़ को कौन समझाए !

काफी देर से इस परिस्थिति को समझ रहे एक बुजुर्ग ने अब बोलना उचित समझा "बेटा आप आर्मी में है तो डिसिप्लिन को आपसे ज्यादा कौन तवज्जो दे सकता है। यदि यह सिविलियन कडक्टर भी उसे मान रहा है तो गलत क्या कर रहा है?

"मैं ही कहाँ मना कर रहा हूँ। वह पैसे ले और चले।"

"बेटे बुरा न मानना,अगर पैसे तुम्हारे पास कम हो तो मैं दे दूँ ?

वह भड़क गया- भिखमंगा हूँ क्या ? देश की रक्षा करता हूँ पर पैसे ज्यादा न दूँगा।"

"फिर कैसे चलेगा ? किसी ने कहा।

बस इतना जानता हूँ कि कंडक्टर बरौंसा का किराया बीस रूपये ले और मुझे पहुँचाए।"

"पर बरौंसा का टिकट भी तो नहीं।" कंडक्टर ने कहा।

मुझे पहुँचने से मतलब है टिकट से नहीं।""

बुजुर्ग से रहा न गया यानी कंडक्टर टिकट न बनाकर पैसा जेब में रख ले। शायद तुम्हारे जैसे कुछ जवान सीमा पर भी यही करते होंगे तभी तो आतंकवादी व तस्कर घुसते हैं और सिविलियन को भ्रष्टाचारी होने की गाली दी जाती है। जो ईमानदार है उसे भी काम नहीं करने दिया जाता।" 

जवान अवाक था। शायद इससे पूर्व वह मुद्दे की संवेदनशीलता से अपरिचित था।उसके कर्तव्य पर कुठाराघात व निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लग चुका था। अब उसका रौद्र रूप शान्त हो गया था। उसने कंडक्टर की ओर पचास रूपये का नोट बढ़ाया और शालीनता से बोला कादीपुर का टिकट बना दीजिए।"

 ~मनोज श्रीवास्तव

      (स्वरचित, मौलिक)

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