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Showing posts from October, 2023

महारास का आध्यात्मिक स्वरूप

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  महारास का आध्यात्मिक स्वरूप         @मानव जो आस्वाद और आस्वाद्यमान दोनों धर्म विशिष्ट रस से युक्त हो, वह रास कहलाता है। गोपियाँ वेद ऋचाएं हैं और श्रीकृष्ण अक्षर ब्रह्म वेद पुरुष; शब्द और अर्थ अथवा ऋषियों और वेद के  नित्य संबंध की भाँति  गोपियों और कृष्ण का  नित्य संबंध और विहार ही  रासलीला है।  सांख्यवादियों के अनुसार,  रासलीला प्रकृति के साथ  पुरुष का विलास है।  गोपियाँ प्राकृत स्वरूप में  अंतःकरण की वृत्तियाँ हैं,  भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं।  प्रकृति के अनेक विलास देख लेने के बाद अपने स्वरूप में स्थित होना रासलीला का रहस्य है। योगशास्त्र में अनाहत नाद  श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि है।  अनेक नाड़ियां गोपियाँ हैं।  कुल कुंडलिनी श्रीराधिका रानी हैं। सहस्र दल कमल ही सुरम्य वृंदावन है, जहाँ आत्मा-परमात्मा का  आनंदमय सम्मिलन रासलीला है। आत्मशक्ति को प्रधानता  देने वाले विद्वान पूर्णानंद में आत्मा के लीन होने को रासलीला मानते हैं। गो शब्द का अर्थ इंद्रिय है,  जिस प्रकार इंद्रियाँ या उनकी वृत्तियाँ एक मन एक प्राण होकर  अंतरात्मा में विलीन होने की तैयारी करती हैं, उसी प्रकार वंशीध्वनि से  गोपिया

लोकाभिराम श्री राम

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  लोकाभिराम श्री राम         @मानव श्रीराम मानवीय आचरण,  जीवन-मूल्यों और आत्म-बल के ऐसे मानदंड बन गए कि उन्हें 'मर्यादा पुरुषोत्तम' रूप में स्वीकार किया गया। राम के माध्यम से व्यापक लोकहित या समष्टि का कल्याण  ऐसा लक्ष्य सिद्ध होता है कि उसके समक्ष सब कुछ  छोटा एवं फीका पड़ जाता है। राम का भाव भारतीय मानस और प्रज्ञा की कभी न चुकने वाली ऐसी अक्षय निधि और उद्भावना है जो सुख-दुख, हर्ष-विषाद, युद्ध-शांति और विरक्ति- आसक्ति जैसे द्वंद्वों की स्थितियों में हमारे लिए प्राण वायु की तरह जीने का आधार प्रदान करती है। श्रीराम का अवतार  लोकहित साधन के लिए ही हुआ, किसी सुखोपभोग या राज्य लिप्सा के लिए नहीं। शासन तो उन्होंने राज करने के आदर्शों को  स्थापित करने के लिए किया। उनमें लोक चिंता और समाजसेवा भाव  जन्मजात थे; प्रत्येक दशा में दशरथ का  एक वचन भंग होना ही था; या तो राजसभा को दिया गया राम को राज्य देने का वचन या कैकेयी को दिया गया वचन; तब राम ने वरीयता लोक भ्रमण और सेवा को ही दी, राज्य को नहीं। राम द्वारा लोक को सदा वरीयता देने के चरित्र  व व्यवहार के आधार पर ही वे लोकाभिराम बने। रामलील

संस्कृति की ऊष्मा का पर्व

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  संस्कृति की ऊष्मा का पर्व           @मानव संसार में परिवर्तन शाश्वत है और नवागत का स्वागत  हमारा धर्म है। समस्त लोक को धारण  और संचालित करने वाली  जगतधारिणी माँ जगदंबा के शक्तिवंदन के पर्व की यह अद्भुत परंपरा है, यह नवदुर्गा के नौ स्वरूपों वाले नवरात्र का दिव्य अभ्यागत स्वागत है। हमारी सनातन संस्कृति  इसी मान्यता पर खड़ी है  कि आदिशक्ति ही संसार में सभी घटित  क्रियाओं का कारण हैं; यह उनकी ही ऊर्जा है जो सब कुछ संचालित कर रही है, इसी कारण हमारे यहाँ  मातृशक्ति का सम्मान है।  स्त्री को शक्ति माना गया है  और माता,बहन या बेटी,  सबके भीतर हम  आदिभवानी का रूप देखते हैं; इसीलिए नवरात्र में कन्या पूजन की परंपरा है।  देवी के नौ स्वरूप  मातृशक्ति के विभिन्न नौ रूप हैं। यदि नारी माँ चंद्रघंटा की  सौम्यता का स्वरूप लिए है  तो दुष्टों के लिए वह  कालरात्रि है, यदि ब्रह्मचारिणी जैसी  वह तेजोमयी है तो महिषासुर जैसे राक्षस का वध करने वाली महादुर्गा भी है। नवरात्र की अद्भुत परंपरा में नौ दिन देवी के विभिन्न स्वरूपों को समर्पित होकर हम स्त्री की सत्ता की ऊर्जा को अनुभूत करते हैं।  स्त्री का सम्मान हो

माँ की उपासना

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 माँ की उपासना        @मानव देवी उपासना का उल्लासधर्मा उत्सव प्रकृति की आराधना है; प्रकृति माँ है, हम सब इसी के अंश हैं,  इसी में पलते हैं। प्रकृति गर्भ से असंख्य जीव आ चुके, प्रतिपल आ रहे हैं, सतत अविरल; बार-बार होता है ऐसा सृजन, निष्कलुष,अनासक्त, लोभ मुक्त। जीवन अद्वितीय है; माँ का ही प्रसाद है; प्रकृति सृजनरत है; यह संभवतः कोई गीत रच रही है- अनंतकाल से; अपूर्ण गीत को फिर-फिर  संशोधित करती है, छन्दबद्ध करती है, लय देती है। प्रकृति लालित्य रस से भरी-पूरी है, सृजन रहस्यपूर्ण है  यह जीर्ण शीर्ण को निरस्त करती है बार-बार, फिर नूतन प्रवाह और बार-बार सृजन।  प्रकृति माता है। हम सबको सींचती है प्रतिपल; वनस्पतियाँ आकर्षित करती हैं; वे हमारी प्राण ऊर्जा पूरक हैं; तुच्छ कीट भी  विविध परिधान में घूमते हैं। प्रकृति दशों दिशाओं से  अनुग्रह की वर्षा करती है, हमारा अनुगृहीत भाव  स्वाभाविक है, यहाँ समूची प्रकृति के प्रति  धन्यवाद भाव है, वह हमारी माता है; दिव्यता के कारण देवी है;  जननी होने के कारण माता है; यह जीवन प्रकृति का ही उपहार है। प्रकृति का पोषण,संवर्द्धन  माँ की ही सेवा है । व्रत आदि आस्था

जगदम्बा :गुणों का संतुलन

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  जगदम्बा :गुणों का संतुलन        @मानव जगत की प्रत्येक वस्तु,  चर या अचर का मूल स्रोत एक निगूढ़ शक्ति है,  जो तर्क और बुद्धि की  सीमा के परे है!  जीवन को गढ़ने हेतु  सहनशीलता,धैर्य, करुणा और क्षमता एक माँ में ही होती है,  अतः विश्वमातृत्व की  अनंत शक्ति ही इतने महत् एवं विशाल जगत् को  जन्म दे सकती है। नवरात्र में पूजित दुर्गा,लक्ष्मी व सरस्वती क्रमशः तमोगुण,  रजोगुण व सतोगुण के प्रतीक हैं। दुर्गा तम की प्रतीक हैं भौतिक जगत में तमोगुण थोड़ा-बहुत आवश्यक है। तमस पर्याप्त न हो तो हम ठीक से सो भी नहीं पाएंगे। लक्ष्मी रजोगुण के रूप में हैं, अत्यधिक रजोगुण होगा शांति-विश्रांति भी दूर रहेगी; यदि अति न्यून होगा तो कार्य समुचित न होंगे; अतः सन्तुलन आवश्यक है। सरस्वती देवी सतोगुण  अथवा सत्व गुण का प्रतीक हैं, जो  पांडित्य,ज्ञान और शांति रूप में प्रकट होता है।  सांसारिक सफलता,  सुख-सुविधाएं और खुशियाँ इन तीन गुणों को  संतुलन में रखना होगा। नवरात्र में कुमारी पूजन का निहितार्थ है कि स्त्रियों को जगदम्बा मानना है; इन पूजनीय महिलाओं पर कोई आक्रमण न करे, दुर्व्यवहार न करे। लक्ष्मी समान पूजित नारी कभी नि

शक्ति की आराधना

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  शक्ति की आराधना        @मानव शक्ति उपासना के पर्व नवरात्र में देवी के जिन रूपों की  आराधना की जाती है  वे शक्ति के मूर्तिमंत स्वरूप हैं और नारी शक्ति के परिचायक हैं। इस पर्व की मूल परिकल्पना यही है कि जो कुछ भी अच्छा है  वह स्त्री से ही सृजित या निर्मित होता है; माँ दुर्गा इसी स्त्री शक्ति को  प्रतिबिम्बित करती हैं। एक तुच्छ कण के स्पंदन हेतु भी शक्ति की अपेक्षा होती है, शक्ति का अर्जन देवी आराधना का मुख्य उद्देश्य है। सनातन संस्कृति में नारी शक्ति की अधिष्ठात्री रही है। शक्ति के अभाव में जब ब्रह्मा भी सृष्टि को जीवंत नहीं कर पा रहे थे तब आदिदेव शिव अपने एक अंश से नर और दूसरे से नारी बन गए; सृष्टि के कण-कण में शक्ति संचरित करने वाला  यह उनका अर्धनारीश्वर रूप था, इससे उन्होंने जगत में  नर-नारी के सह-अस्तित्व को प्रतिष्ठापित किया और पुरुष को अहसास कराया कि नारी सम्मान से ही  पुरुष को शिवत्व (कल्याण) की प्राप्ति हो सकती है। "शिव और शक्ति शब्द और अर्थ के समान  अभिन्न हैं।"    (रघुवंश में कालिदास) अन्योन्याश्रय संबंध से  दोनों का अस्तित्व  एक-दूसरे पर निर्भर है; इसीलिए हर पुरु

पितरों को नमन!

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  पितरों को नमन!           @मानव हमारे इस संसार में जन्म लेने का माध्यम पिता और पूर्वज ही हैं; वे थे, इसलिए हम हैं; वे न होते, तो हम न होते; उन्होंने पालन पोषण दिया; स्वयं की महत्वाकांक्षाएं छोड़ी; हमारी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उन्होंने तमाम कर्म किए; वे सदा सर्वदा नमन योग्य हैं। श्रद्धा भाव है और श्राद्ध कर्म। श्रद्धा मन का प्रसाद है।  पतंजलि ने श्रद्धा को चित्त की स्थिरता या अक्षोभ से जोड़ा है।  श्रद्धा की अभिव्यक्ति श्राद्ध है।  पूर्वजों पितरों के प्रति  श्रद्धा की स्थाई भावना  हमारी विरासत है। हम पूर्वजों के प्रति प्रतिपल श्रद्धालु रहते हैं, लोकमान्यता है कि  पितृपक्ष में पूर्वज पितर  आकाश लोक आदि से  उतरकर धरती पर आते हैं।  वर्ष भर की व्यस्तता के मध्य  इन पक्ष दिवसों में पितरों के प्रति गहन श्रद्धा का प्रसाद सुख निराला है।  वैदिक निरूक्त में श्रत और श्रद्धा को सत्य बताया गया है; पितरों का आदर प्रत्यक्ष मानवीय गुण है।  भारतीय मनीषियों ने श्रद्धा भाव को श्राद्ध कर्म बनाया; पिता,पितामह और प्रपितामह के लिए  अन्न भोजन जल आदि  अर्पण तर्पण का  कर्मकाण्ड बनाया; श्रद्धा है कि अर्प

पितृपक्ष की सार्थकता

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  पितृपक्ष की सार्थकता         @मानव 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' यानी मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो  इसमें सभी के अमरत्व की  कामना की गई है; जो मानता है कि किसी की मृत्यु नहीं होती, केवल रूप बदलता है; यही गीता का सार है और कर्तव्य पथ पर  आरूढ़ होने का मंत्र भी! वस्तुतःभारतीय संस्कृति  मूलतः जीवनदायिनी संस्कृति है; तभी तो हमारे पूर्वज भी  स्थूल शरीर छोड़कर सूक्ष्म शरीर से सदा जीवित रहते हैं; उन्हीं के लिए पितृपक्ष में  श्राद्धकर्म का विधान है। जगत को कर्मप्रधान कहा जाता है,  परंतु वास्तव में यह भावप्रधान है; अंतर्मन में कार्य करने का भाव पहले जागृत होता है; फिर वह कार्य रूप में  परिणत होता है; अतः सभी कर्म भावप्रसूत हैं; इसीलिए कर्म और भाव में  कार्य-कारण संबंध रहता है; जैसा भाव वैसा कर्म ।  ‘मातृदेवो भव', 'पितृदेवो भव' 'आचार्य देवो भव' यह कहने का तात्पर्य यही है कि माता, पिता और गुरु  साक्षात देव स्वरूप हैं;  जिनकी मृत्यु कभी नहीं होती। ये न रहकर भी सदा हमारे साथ रहते हैं,  मार्गदर्शन करते हैं और सूक्ष्म रूप से हमारे द्वारा समर्पित भोगों को भी ग्रहण करते हैं। ज