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Showing posts from September, 2024

श्राद्धकर्म प्रयोजन

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  श्राद्धकर्म प्रयोजन         @मानव यमलोक पृथ्वी लोक से  छियासी हजार योजन दूर है  जो चंद्रमा का उर्ध्व भाग है,  यहीं पर पितृ लोक स्थित है।  पितृपक्ष के सोलह दिनों में  चंद्रमा का उर्ध्व भाग वर्ष के अन्य महीनों की तुलना में पृथ्वी के अत्यंत निकट आ जाता है अर्थात् इस समय पितृलोक  पृथ्वी की कक्षा से निकट होने से पितृगण की ऊर्जा सीधे पृथ्वीवासियों से  आकर्षित होती है; इसलिए इसी अवधि में पूर्वजों को स्मरण करना समुचित माना जाता है।     (गरुड़ पुराण) मनुष्य की आत्मा सूर्य की ऊर्जा से तथा मन चंद्रमा की ऊर्जा से  निर्मित का विस्तृत स्वरूप है, जो सूक्ष्म एवं अविनाशी ऊर्जा है; इस मनस ऊर्जा में मन के साथ तो बुद्धि एवं चित्त की ऊर्जा समाहित रहती है; जब यह ऊर्जा संसार में जन्म लेती है, तो उसके पूर्व कर्म, जो उसकी चित्त रूपी ऊर्जा में संचित रहते हैं, अपने प्रारब्ध को भोगने के लिए मनस ऊर्जा के अंदर उसी प्रकार की प्रवृत्ति को  उत्पन्न करते हैं, और उसी प्रकार की प्रवृत्ति वाले योनि में जन्म लेने के लिए  प्रेरित करते हैं, और जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो वही मनस ऊर्जा अपने पूर्व कर्मों के साथ  वर्तमान जीव

श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ ...

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 ' श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ ...'         @मानव अर्पण,तर्पण और समर्पण  भारतीय संस्कृति के  आधारभूत स्तंभ हैं; आज हम जो कुछ भी हैं,  माता-पिता और पूर्वजों के  आशीर्वाद से हैं, अतः पितृपक्ष आत्म-अस्तित्व और जड़ों से जुड़ने का  पाक्षिक दिव्य महोत्सव है।  सामर्थ्यवान और अनुग्रहशील परम कृपालु पितृसत्ता हम सभी का सर्वथा मंगल करे, हम अपने पूर्वजों के प्रति  श्रद्धा भाव रखें। ' पुनंतु मा पितर: सौम्यास:  पुनंतु मा पितामहा: पुनंतु प्रपितामहा: पवित्रेण शतायुषा। पुनंतु मा पितामहा: पुनंतु प्रपितामहा: पवित्रेण शतायुषा  विश्वमायुर्व्यश्नवै।।' परिवार की प्रसन्नता देखकर  पितृ प्रसन्न होते हैं। अतः पितृ पक्ष में प्रसन्न रहकर दान-पुण्य करना चाहिए।  ' श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ ...' (जो श्रद्धा से किया जाए,  वह श्राद्ध है।) अपने पूर्वजों के प्रति स्नेह,  विनम्रता,आदर व श्रद्धा भाव से विधिपूर्वक किया जाने वाला मुक्त कर्म ही श्राद्ध है; यह पितृ ऋण से मुक्ति का  सरल व सहज उपाय है; इसे पितृयज्ञ भी कहा गया है। सनातन में माता-पिता की सेवा सबसे बड़ी पूजा मानी गई है, जन्मदाता माता-पिता को  मृत्

ॐ पितृ देवतायै नमः

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  ॐ पितृ देवतायै नमः        @मानव वही संस्कृति टिकी रहती है  जो अपनी जड़ों से, अपने परिवार से जुड़ी रहती है। सनातन धर्म में पितरों को  हर मांगलिक अवसर पर  श्रद्धापूर्वक स्मरण करने की  परंपरा है। पितृ पक्ष पूर्वजों को समर्पित समय है   इस पक्ष में पितरों को  प्रसन्न करने, क्षमा माँगने  और पितृ दोष से मुक्ति के लिए प्रयास किए जाते हैं। पितृ पक्ष के माध्यम से  अपने पितरों को प्रणाम करने का, पूर्वजों की पुण्यस्मृति में गङ्गा में स्नान करने का  समय आ गया है; विशेष अनुष्ठान-पूजा द्वारा जहाँ अपनी कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । आधुनिक समाज में व्यक्ति  अपने पूर्वजों के प्रति कर्तव्यों को भूलता जा रहा है, पितृपक्ष का आयोजन उन्हें याद दिलाने का,  परिवार को जोड़ने का  महत्वपूर्ण माध्यम है। मान्यता है कि पितृपक्ष में पितृदेव धरतीलोक पर आते हैं और सप्रेम अर्पित प्रसाद को ग्रहण करते हैं, प्रसन्न हो आशीर्वाद भी देते हैं; "तर्पण-पिंडदान और श्राद्ध वस्तुतः मृत्यु के बाद का कर्म है!"  ( गरुण पुराण ) जो परिजन पृथ्वीलोक को  छोड़कर जा चुके हैं, उनके आत्मा की शाँति और पितरों का ऋण उतारने के लिए पितृ

पितृयज्ञ

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  पितृयज्ञ           @मानव भारतीय संस्कृति मानवता की पोषक है अतः धरती के सभी प्राणियों के योगक्षेम की चिंता करती है।  इसकी सिद्धि के लिए मानव को साधक बनाकर पञ्चयज्ञों का विधान है, जिसमें चेतन ही नहीं जड़ पदार्थों का भी ध्यान रखा गया है। मनुष्य पर जन्म से ही पाँच ऋणों का भार है पञ्चयज्ञ इनसे मुक्ति के  प्रखर साधन हैं। वेदों ने मातृदेवो भव, पितृदेवो भव का उद्घोष किया है; पितृयज्ञ पितृऋण से मुक्ति का उपाय है। इसी भावना की सिद्धि हेतु  भारतीय संस्कृति में पितृपक्ष का विधान है,  जिसमें श्राद्ध कर्म द्वारा  उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है। श्रद्धा भाव प्रमुख होने से  इसे श्राद्ध कहते हैं; श्रद्धा से समर्पित भोगों को  पूर्वज भाव रूप में ग्रहण करते हैं। स्थूल के सामान सूक्ष्म जगत भी सत्य है,  जिसे भाव जगत भी कहा जाता है; माता-पिता एवं गुरु स्थूल शरीर के न रहने पर भी सूक्ष्म शरीर से हमेशा जीवित रहते हैं; उनका मार्गदर्शन संबल बनकर सदा हमारे साथ रहता है।  उनकी संतृप्ति के लिए तर्पण एवं दान आदि के द्वारा पितृयज्ञ संपादित करने का विधान है; पितृयज्ञ का मूल उद्देश्य  पूर्वजों के प्रति श्रद्धा तथ
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  विश्वकर्मा प्रजापति :           @मानव भगवान ब्रह्मा जी ने सृष्टि बनाई, इसके निर्माण कार्य का निष्पादन सातवें पुत्र विश्वकर्मा जी को सौंपा; अतः विश्वकर्मा प्रजापति अर्थात सृष्टि के निर्माता हैं " विश्वकर्मा प्रजापति: स सर्जनात् प्रजापति:"। विश्वकर्मा की सर्जनात्मक शक्ति और सृष्टि संरक्षक शिव के साथ तादात्मय उल्लेखनीय है। "विश्वकर्मा रुचिरनिर्माणम्,  विश्वकर्मा शिवमाचरेत्।" ब्रह्मा जी के आदेश पर ही  विश्वकर्मा जी ने सृष्टि का  मानचित्र बनाया था। अतः वे विश्व के प्रथम अभियंता हैं। भगवान विश्वकर्मा का सृष्टि के निर्माता और विधाता के रूप में आह्वान किया जाता है। " विश्वकर्मा त्वमसि धाता,  विश्वकर्मा त्वमसि विधाता।" विश्वकर्मा जी की अन्य कृतियाँ हैं देवाधिदेव शंकर का त्रिशूल, पुष्पक विमान, सोने की लंका, श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका,  पाण्डवों का इंद्रप्रस्थ, व देवी-देवताओं के अस्त्र-शस्त्र। विश्वकर्मा जी को यांत्रिकी  और वास्तुकला विज्ञान के जनक का श्रेय है।    ( ऋग्वेद ) विश्वकर्मा की सर्वव्यापकता,  सर्वज्ञता,शक्ति-संपन्नता  और अनंतता है। ' विश्वतः चक्षुरुत

गतिमान है हिन्दी

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  गतिमान है हिन्दी        @मानव 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है; हिंदी हृदय की भाषा है और हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न हैं।'   ( महात्मा गाँधी) सँविधान सभा द्वारा देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार करने का निर्णय  स्वतंत्र और लोकतांत्रिक  भारत के निर्माण के लिए  अति महत्वपूर्ण था। भाषा की विविधता के बावजूद एक ऐसी भाषा को  राजभाषा चुना गया, जो देश के अधिकाँश लोगों के लिए सहज और सुलभ थी। हिंदी में भावी भारत की सँपर्क भाषा बनने की ताकत है; वस्तुतः यही विचार हिंदी की मूल ऊर्जा बना। हिंदी ने न केवल एक भाषा के रूप में, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक  धरोहर के प्रतीक के रूप में भी  महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह वह भाषा है, जिसने देश की आत्मा को  प्रतिबिंबित किया है और स्वतंत्रता के बाद के भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ किया है। तकनीकी और वैज्ञानिक  प्रगति के साथ हिंदी ने परंपरा और आधुनिकता के बीच  एक पुल का काम किया है। आज नई पीढ़ी के लिए हिंदी भारत बोध और राष्ट्रीय अस्मिता का  प्रसारक साधन है। जब किसी राष्ट्र को विश्व बिरादरी महत्व और स्

कृष्ण प्रेममयी राधा

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  कृष्ण प्रेममयी राधा        @मानव जिस जीव का साध्य राधा हैं  उनको पाने का साधन भी  राधा एवं राधा नाम ही है; मंत्र भी ‘राधा’ है और मंत्र देने वाली गुरु भी राधा ही हैं। जिसका सब कुछ राधा हैं,  जीवन प्राण भी राधा ही हैं,  ऐसे जीवों को पाने के लिए  कुछ भी शेष बचता ही नहीं;  उन लोगों को सब कुछ प्राप्त है। राधा साध्यम साधनम् यस्य  राधा मंत्रो राधा मंत्र दात्री च: राधा। सर्वम् राधा जीवनम यस्य राधा, राधा राधा वाचिकिम तस्य शेषम्।। श्रीकृष्ण से यदि प्रीति हो जाए तो वह प्रीति ही राधा रानी हैं; अगर श्रीकृष्ण का विरह सताए और अश्रुधारा बहने लगे तो वह अश्रु ही राधा रानी हैं। जीव के भीतर जो भाव हैं,  वे ‘भाव’ ही राधा रानी हैं; जो श्रीकृष्ण जैसे साक्षात रस को अपने भाव के पात्र में  संजोकर रख सके, वह श्री राधा रानी हैं। राधा शब्द धारा का उल्टा है;  राधा की धारा के प्रवाह में  बृजवासी बहते हैं, जिनका अभिवादन भी राधा हैं, राधा ही स्मरण हैं, राधा ही समर्पण हैं। हमारी जीवन रूपी धारा में  अपनी इंद्रियों को मोड़कर  श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पण करने की शक्ति को  राधा कहते हैं। वे संपूर्ण रूप से सहज ही कृतकृत्

विघ्नहर्ता गणेश

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  विघ्नहर्ता गणेश          @मानव गणपति संप्रदाय के सर्वोच्च देवता सनातनियों के प्रथम पूज्य शुभारंभ के लिए सुद्धि प्रदाता हैं, और कार्य पूरा करने की शक्ति भी; वे विघ्न को दूर कर अभय देते हैं, और सही-गलत का भेद बता कर न्याय भी करते हैं।  गणेश जी विघ्नहर्ता के रूप में प्रथम पूज्य देव हैं अतः हिन्दू परंपरा में प्रत्येक शुभ कार्य की शुरुआत भी गणेश-आराधना से होती है। गणेश जी की पूजा से  मनोवांछित कार्यों में  सफलता मिलती है; गणेश पूजन से घर,परिवार में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। भगवान गणेश बुद्धि और ज्ञान के भी देव हैं; इसलिए विद्यार्थियों के भी उपास्य हैं।  वे ही सिद्धि विनायक भी हैं,  जिन्होंने हर युग में  अलग-अलग रूपों में अवतार लिया है, उनकी शरीर की संरचना में  विशिष्ट और गहरा अर्थ निहित है। शिवमानस पूजा में  गणेश प्रणवरूप में उल्लिखित हैं; बड़े कान अत्यधिक ग्राह्यशक्ति और छोटी-पैनी आँखें  सूक्ष्म-तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं; उनकी लंबी सूँड़ महाबुद्धित्व का प्रतीक है। गणेश जी का एकदंत  एकाग्रता का परिचायक है; वे लंबोदर हैं क्योंकि समस्त चराचर सृष्टि  उनके उदर में विचरती है। गणेश की

गणपति जगवन्दन

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  गणपति जगवन्दन             @मानव 'सहस्रन्तु पितृन् माता...'  माता पिता से सहस्र गुना  अधिक गौरव रखती है; पार्वती चराचर की धात्री हैं उनकी ममता का आलंबन  बालक गणपति हैं; नन्हें हेरंब इसे चरितार्थ भी करते हैं। समस्त विघ्नों के हर्ता, माता की आँखों के तारे, सारे जग के दुलारे, लंबोदर का बालरूप हर माता को आनंद से विह्वल कर देता है विनायक माता पार्वती की  समस्त आह्लादकारी ममता का मूर्तिमान रूप हैं। "गौरीप्रणयाय गौरीप्रवणाय गौरभावाय धीमहि"पूजित नन्हें बालक गजबदन संस्कारों के आगार हैं, वे बुद्धिनाथ हैं, उनकी बुद्धि,समर्पण और श्रद्धा के समक्ष कोई भी बल नतमस्तक है;  तभी तो वे अभीप्सा कार्यसिद्धि का प्रथम सोपान हैं। गणपति के सहस्त्रों नाम हैं पर उनका किसी भी रूप में होना अलौकिक दिव्यता का परिचायक है; भक्त वत्सल विनायक  आगार हैं बुद्धि विद्या के,  रिद्धि सिद्धि के, साथ ही अपरिमेय सामर्थ्य के; यद्यपि गणपति अनादि अनंत हैं पर उनके आविर्भाव का दिन अपूर्व उत्साह से भर देता है।  आशुतोष के पुत्र वक्रतुंड  पिता के समान ही परम संतोषी हैं; भाव के भूखे, भक्त वत्सल, बालकमन गजानन मोदक से ही

जीवन की नूतन दृष्टि हैं गणेश

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  जीवन की नूतन दृष्टि हैं गणेश           @मानव गणेश जी हमारी चेतना के केंद्र में अवस्थित हैं, गणेश जी की पूजा सजग चेतना द्वारा की जा सकती है, उनका आवाहन परब्रह्म के रूप में होता है अर्थात् वह एकमात्र ईश्वर है, जो सभी वर्णनों और  संकल्पनाओं से परे हैं। गणेश जी का "कभी जन्म नहीं हुआ, जहाँ कोई विकल्प या कोई विचार नहीं है  जिनका कोई आकार भी नहीं है; जो आनंद भी है और आनंद के बिना भी है  और जो एक ही है, ऐसे गणपति परब्रह्म का रूप हैं; आपको मैं नमस्कार करता हूँ।" ' अजं निर्विकल्पं निराकार रूपम...'    (आदि शंकराचार्य) योगशास्त्र के अनुसार गणेश जी मूलाधार चक्र के स्वामी हैं  और पृथ्वी तत्व से जुड़े हैं; जब मूलाधार चक्र सक्रिय होता है, तब हमें साहस का अनुभव होता है और उसके निष्क्रिय होने पर  आलस्य और इच्छाओं की  कमी का अनुभव होता है; मूलाधार चक्र में चेतना को  गणेश जी समझा गया है।  गणेश जी के बाह्य स्वरूप में, गहरा रहस्य छिपा हुआ है; वे बुद्धि और ज्ञान के देवता हैं; जब व्यक्ति भीतर से जाग्रत होता है, तभी वास्तविक बुद्धि का  उदय होता है। गणेश अथर्वशीर्ष में हर जगह गणेश जी की उपस्

गणानां त्वा गणपतिं हवामहे

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  गणानां त्वा गणपतिं हवामहे         @मानव 'गणानां त्वा गणपतिं हवामहे  प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे'।     (यजुर्वेद में प्रार्थना) गणपति ओंकारस्वरूप हैं,  सूर्य के प्रतिनिधि हैं; तांबूल के ऊपर छोटी सी सुपारी रखकर जब भी किसी ने आह्वान किया शुभ और लाभ के  आश्वासनों की पोटली लेकर गणेश जी उपस्थित हुए। लोक-जीवन और लोकाचार से जोड़कर  मिट्टी के गणपति बनाए गए;  नाचते हुए गणपति, बैठे हुए गजवदन, ढोल बजाते लंबोदर, लेटे हुए गौरीसुत, असुर-संहार करते शूर्पकर्ण;  हम गणपति के साथ जैसा भक्तिपूर्वक खेल खेल सकते हैं, वैसा और किसी देवी- देवता के साथ नहीं। गणपति प्रथम पूज्य हैं; उन्हें पुराणों ने ही प्रथम पूज्य नहीं बनाया,  वेदों में भी वे ही देवताओं में सबसे ऊपर हैं; वहाँ वे ब्रह्मणस्पति हैं; ज्ञान के देवता होने के कारण इंद्र,अग्नि,विष्णु, वरुण और सोम सहित सब देवताओं से भी ऊपर  उनकी प्रतिष्ठा है। जिस तरह वेद में वर्णित रुद्र  बाद में शिव हुए, उसी तरह ब्रह्मणस्पति  गणपति कहलाए; ' गणानां त्वा गणपतिं हवामहे ', (ऋग्वेद के ब्रह्मणस्पति सूक्त  से) तन्त्रसाहित्य में गणपति को  प्रत्यक्ष तत्व और

हरितालिका तीज

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  हरितालिका तीज          @मानव मानव जीवन में भौतिक प्यास से बड़ी है मन और आत्मा की प्यास; मानवीय संबंधों की परतों में निहित भाव और संवेदना को सतह पर लाना और पारस्परिक प्रेम को प्रगाढ़ करने की श्रृंखला में अखण्ड सौभाग्य-कामना का व्रत हरतालिका तीज है। हाथों में रची मेंहदी व सोलह श्रृंगार के साथ पति की रक्षा के लिए शिव गौरी के पूजन कर होने वाला उपवास महिलाओं के मन में उल्लास व खुशियाँ  विकीर्ण करता है। सुखी,समझदार दम्पत्ति से निर्मित परिवार की संस्कारित संपूर्ण संतति  दुनिया में सभ्यता की नींव  मजबूत करने में सहायक हैं। अतः अखण्ड सौभाग्य आस्था और विश्वास समर्पण तथा सौभाग्य हरितालिका का पर्याय हैं।      ✒️ मनोज श्रीवास्तव

गुरु-शिष्य परंपरा

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  गुरु-शिष्य परंपरा            @मानव शिक्षक दिवस भारत में  गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक है; छात्रों तथा शिक्षकों के लिए  संकल्प और प्रेरणा का समय है; चरित्र द्वारा संपूर्ण गुणात्मक शक्ति को ग्रहण करने का काल है।  शिक्षा से ज्ञान और उद्धार का मार्ग खुलता है; ज्ञान से मोक्ष का द्वार मिलता है; इसलिए क्रमिक विकास की यह गति केवल शिक्षा से ही संभव है।  शिक्षा मानव विकास का  शीर्ष साधन है, जो घर से आरंभ होकर पाठशाला और विश्वविद्यालय तक  पल्लवित होती है। शिक्षक विद्या का  अधिष्ठाता है, नियामक है; वह शिष्य को लक्ष्य तक  पहुँचाने में अनन्य सहायक है। विद्या प्रसार करने के लिए  शिक्षा माध्यम है; विद्या ही जीवन की सबसे कठिन साधना है, जो ज्ञान का लक्ष्य साधती है। ज्ञान ही मानव का परम लक्ष्य है, जिससे ईश्वर की प्राप्ति संभव है; ईश मिलन ही इस शरीर का  अनन्य उद्देश्य है; अतः अज्ञान में भटकने वाले मानव पशु के समान हैं। हमारा जन्म क्यों हुआ, और मृत्यु क्यों होगी यह रहस्य ज्ञान-अधीन है; शिक्षा ही इस ज्ञान वृक्ष का बीज है। शिक्षा देश का बल है, संसार का संबल है; जीवन का संपूर्ण सार है; शिक्षा का तात्पर्य विद